आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में
आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में सीने में तीर उस के टूटे हैं बे-निहायत सुराख़ पड़ गए हैं सारे मिरे जिगर में आइंदा शाम को हम रोया कुढ़ा करेंगे मुतलक़ असर न देखा नालीदन-ए-सहर में बे-सुध पड़ा रहूँ हूँ उस मस्त-ए-नाज़ बिन मैं आता है होश मुझ को अब तो पहर पहर में सीरत से गुफ़्तुगू है क्या मो'तबर है सूरत है एक सूखी लकड़ी जो बू न हो अगर में हम-साया-ए-मुग़ाँ में मुद्दत से हूँ चुनाँचे इक शीरा-ख़ाने की है दीवार मेरे घर में अब सुब्ह ओ शाम शायद गिर्ये पे रंग आवे रहता है कुछ झमकता ख़ूनाब चश्म-ए-तर में आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में

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