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इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से...

देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से...

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया तुलती है कहीं दीनारों में बिकती है कहीं बाज़ारों में नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में...

अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा मैं ने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुनझुलाई थी...

लो आज हम ने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उमीद लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम...

जब तुम से मोहब्बत की हम ने तब जा के कहीं ये राज़ खुला मरने का सलीक़ा आते ही जीने का शुऊर आ जाता है...

मिरा जुनून-ए-वफ़ा है ज़वाल-आमादा शिकस्त हो गया तेरा फ़ुसून-ए-ज़ेबाई उन आरज़ूओं पे छाई है गर्द-ए-मायूसी जिन्हों ने तेरे तबस्सुम में परवरिश पाई...

इस तरफ़ से गुज़रे थे क़ाफ़िले बहारों के आज तक सुलगते हैं ज़ख़्म रहगुज़ारों के ख़ल्वतों के शैदाई ख़ल्वतों में खुलते हैं हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दा-दारों के...

इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से...

कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया...

मैं ने जिस वक़्त तुझे पहले-पहल देखा था तू जवानी का कोई ख़्वाब नज़र आई थी हुस्न का नग़्म-ए-जावेद हुई थी मालूम इश्क़ का जज़्बा-ए-बेताब नज़र आई थी...

लब पे पाबंदी तो है एहसास पर पहरा तो है फिर भी अहल-ए-दिल को अहवाल-ए-बशर कहना तो है ख़ून-ए-आदा से न हो ख़ून-ए-शहीदाँ ही से हो कुछ न कुछ इस दौर में रंग-ए-चमन निखरा तो है...

मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मिरी कहानी है पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मिरी जवानी है मुझ से पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए कुछ आहें भर कर लौट गए कुछ नग़्मे गा कर चले गए...

मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया...

जुर्म-ए-उल्फ़त पे हमें लोग सज़ा देते हैं कैसे नादान हैं शोलों को हवा देते हैं हम से दीवाने कहीं तर्क-ए-वफ़ा करते हैं जान जाए कि रहे बात निभा लेते हैं...

अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो क्या चाहती है उन की नज़र पूछते चलो हम से अगर है तर्क-ए-तअल्लुक़ तो क्या हुआ यारो कोई तो उन की ख़बर पूछते चलो...

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी...

इतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात क्या करें पेड़ों के बाज़ुओं में महकती है चाँदनी बेचैन हो रहे हैं ख़यालात क्या करें...

दिल के मुआमले में नतीजे की फ़िक्र क्या आगे है इश्क़ जुर्म-ओ-सज़ा के मक़ाम से...

कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया...

तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ वही आँसू वही आहें वही ग़म है जिधर जाएँ कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता वही बेगाने चेहरे हैं जहाँ जाएँ जिधर जाएँ...

बर्बाद-ए-मोहब्बत की दुआ साथ लिए जा टूटा हुआ इक़रार-ए-वफ़ा साथ लिए जा इक दिल था जो पहले ही तुझे सौंप दिया था ये जान भी ऐ जान-ए-अदा साथ लिए जा...

क्या जानें तिरी उम्मत किस हाल को पहुँचेगी बढ़ती चली जाती है तादाद इमामों की हर गोशा-ए-मग़रिब में हर ख़ित्ता-ए-मशरिक़ में तशरीह दिगर-गूँ है अब तेरे पयामों की...

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के ये लुटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफ़िज़ ख़ुदी के सना-ख़्वान-ए-तक़्दीस-ए-मशरिक़ कहाँ हैं...

हर-चंद मिरी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार है महबूस ख़ामोश मगर तब-ए-ख़ुद-आरा नहीं होती मामूरा-ए-एहसास में है हश्र सा बरपा इंसान की तज़लील गवारा नहीं होती...

देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना क़रीब से चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से कहने को दिल की बात जिन्हें ढूँडते थे हम महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से...

हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया...

दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं...

नफ़स के लोच में रम ही नहीं कुछ और भी है हयात साग़र-ए-सम ही नहीं कुछ और भी है तिरी निगाह मिरे ग़म की पासदार सही मिरी निगाह में ग़म ही नहीं कुछ और भी है...

तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम...

बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया...

ये वादियाँ ये फ़ज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें ख़मोशियों की सदाएँ बुला रही हैं तुम्हें तरस रहे हैं जवाँ फूल होंट छूने को मचल मचल के हवाएँ बुला रही हैं तुम्हें...

भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागर से हम ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम कुछ और बढ़ गए जो अंधेरे तो क्या हुआ मायूस तो नहीं हैं तुलू-ए-सहर से हम...

अपने माज़ी के तसव्वुर से हिरासाँ हूँ मैं अपने गुज़रे हुए अय्याम से नफ़रत है मुझे अपनी बे-कार तमन्नाओं पे शर्मिंदा हूँ अपनी बे-सूद उमीदों पे नदामत है मुझे...

मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ वो तबस्सुम वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो...

सज़ा का हाल सुनाएँ जज़ा की बात करें ख़ुदा मिला हो जिन्हें वो ख़ुदा की बात करें उन्हें पता भी चले और वो ख़फ़ा भी न हों इस एहतियात से क्या मुद्दआ की बात करें...

मोहब्बत तर्क की मैं ने गरेबाँ सी लिया मैं ने ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैं ने अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने...

जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया जो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया...

जज़्बात भी हिन्दू होते हैं चाहत भी मुसलमाँ होती है दुनिया का इशारा था लेकिन समझा न इशारा दिल ही तो है...

चाँद मद्धम है आसमाँ चुप है नींद की गोद में जहाँ चुप है दूर वादी में दूधिया बादल झुक के पर्बत को प्यार करते हैं...