Page 3 of 3

कल भी मेरी प्यास पे दरिया हँसते थे आज भी मेरे दर्द का दरमाँ कोई नहीं मैं इस धरती का अदना सा बासी हूँ सच पूछो तो मुझ सा परेशाँ कोई नहीं...

सब ने मिलाए हाथ यहाँ तीरगी के साथ कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ रौशनी के साथ शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ...

वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से मैं ए'तिबार न करता तो और क्या करता...

देर से एक ना-समझ बच्चा इक खिलौने के टूट जाने पर इस तरह से उदास बैठा है जैसे मय्यत क़रीब रक्खी हो...

हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाए ये वो नहीं जो किसी रहगुज़र का हो जाए उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए...

होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू ले जाएगी ये प्यास की आवारगी कहाँ...

दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता पहुँचा है बुज़ुर्गों के बयानों से जो हम तक क्या बात हुई क्यूँ वो ज़माना नहीं आता...

इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे...

दीवाली की रात आई है तुम दीप जलाए बैठी हो मासूम उमंगों को अपने सीने से लगाए बैठी हो तस्वीर को मेरी फूलों की ख़ुशबू में बसाए बैठी हो आँखों के नशीले डोरों पर काजल को बिठाए बैठी हो...

अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा...

अपने साए को इतना समझाने दे मुझ तक मेरे हिस्से की धूप आने दे एक नज़र में कई ज़माने देखे तो बूढ़ी आँखों की तस्वीर बनाने दे...

आते आते मिरा नाम सा रह गया उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया...

तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता इक तू है जो लफ़्ज़ों में अदा हो नहीं सकता...

सभी का धूप से बचने को सर नहीं होता हर आदमी के मुक़द्दर में घर नहीं होता कभी लहू से भी तारीख़ लिखनी पड़ती है हर एक मारका बातों से सर नहीं होता...

ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी...

रंग बे-रंग हों ख़ुशबू का भरोसा जाए मेरी आँखों से जो दुनिया तुझे देखा जाए हम ने जिस राह को छोड़ा फिर उसे छोड़ दिया अब न जाएँगे उधर चाहे ज़माना जाए...

मैं उस को पूज तो सकता हूँ छू नहीं सकता जो फ़ासलों की तरह मेरे साथ रहता है...

तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ हर शख़्स तुम्हारी ही तरफ़ देख रहा है...

वो मेरे बालों में यूँ उँगलियाँ फिराता था कि आसमाँ के फ़रिश्तों को प्यार आता था उसे गुलाब की पत्ती ने क़त्ल कर डाला वो सब की राहों में काँटे बहुत बिछाता था...

मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा...

आपको देख कर देखता रह गया क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया आते-आते मेरा नाम-सा रह गया उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया...