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ये है तो सब के लिए हो ये ज़िद हमारी है इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है...

मैं ने चाहा है तुझे आम से इंसाँ की तरह तू मिरा ख़्वाब नहीं है जो बिखर जाएगा...

मैं तिरी याद को सीने से लगाए गुज़रा अजनबी शहर की मशग़ूल गुज़र गाहों से बेवफ़ाई की तरह फैली हुई राहों से नई तहज़ीब के आबाद बयाबानों से...

वो मुझ को क्या बताना चाहता है जो दुनिया से छुपाना चाहता है मुझे देखो कि मैं उस को ही चाहूँ जिसे सारा ज़माना चाहता है...

सभी रिश्ते गुलाबों की तरह ख़ुशबू नहीं देते कुछ ऐसे भी तो होते हैं जो काँटे छोड़ जाते हैं...

रख देता है ला ला के मुक़ाबिल नए सूरज वो मेरे चराग़ों से कहाँ बोल रहा है...

आते आते मिरा नाम सा रह गया उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया रात मुजरिम थी दामन बचा ले गई दिन गवाहों की सफ़ में खड़ा रह गया...

क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता...

दूर से ही बस दरिया दरिया लगता है डूब के देखो कितना प्यासा लगता है तन्हा हो तो घबराया सा लगता है भीड़ में उस को देख के अच्छा लगता है...

खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं वो समझता था उसे पा कर ही मैं रह जाऊँगा उस को मेरी प्यास की शिद्दत का अंदाज़ा नहीं...

हम ये तो नहीं कहते कि हम तुझ से बड़े हैं लेकिन ये बहुत है कि तिरे साथ खड़े हैं...

आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है...

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता बुरे अच्छे हों जैसे भी हों सब रिश्ते यहीं के हैं किसी को साथ दुनिया से कोई ले कर नहीं जाता...

अंधेरा ज़ेहन का सम्त-ए-सफ़र जब खोने लगता है किसी का ध्यान आता है उजाला होने लगता है वो जितनी दूर हो उतना ही मेरा होने लगता है मगर जब पास आता है तो मुझ से खोने लगता है...

उस ने मेरी राह न देखी और वो रिश्ता तोड़ लिया जिस रिश्ते की ख़ातिर मुझ से दुनिया ने मुँह मोड़ लिया बड़ी बड़ी ख़ुशियों को हाँ नज़दीक से जा कर देखा तो मैं ने राह के चलते-फिरते दुख से नाता जोड़ लिया...

जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम न हो...

मेरा ये ख़्वाब कि तुम मेरे क़रीब आई हो अपने साए से झिझकती हुई घबराती हुई अपने एहसास की तहरीक पे शरमाती हुई अपने क़दमों की भी आवाज़ से कतराती हुई...

कोई इशारा दिलासा न कोई व'अदा मगर जब आई शाम तिरा इंतिज़ार करने लगे...

मिरी वफ़ाओं का नश्शा उतारने वाला कहाँ गया मुझे हँस हँस के हारने वाला हमारी जान गई जाए देखना ये है कहीं नज़र में न आ जाए मारने वाला...

किसी ने रख दिए ममता-भरे दो हाथ क्या सर पर मिरे अंदर कोई बच्चा बिलक कर रोने लगता है...

तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को मैं ने महफ़ूज़ समझ रक्खा था तन्हाई को जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को...

जहाँ दरिया कहीं अपने किनारे छोड़ देता है कोई उठता है और तूफ़ान का रुख़ मोड़ देता है मुझे बे-दस्त-ओ-पा कर के भी ख़ौफ़ उस का नहीं जाता कहीं भी हादिसा गुज़रे वो मुझ से जोड़ देता है...

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है समुंदरों ही के लहजे में बात करता है...

मैं आसमाँ पे बहुत देर रह नहीं सकता मगर ये बात ज़मीं से तो कह नहीं सकता किसी के चेहरे को कब तक निगाह में रक्खूँ सफ़र में एक ही मंज़र तो रह नहीं सकता...

तुम्हें ग़मों का समझना अगर न आएगा तो मेरी आँख में आँसू नज़र न आएगा ये ज़िंदगी का मुसाफ़िर ये बे-वफ़ा लम्हा चला गया तो कभी लौट कर न आएगा...

मैं भी उसे खोने का हुनर सीख न पाया उस को भी मुझे छोड़ के जाना नहीं आता...

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा अब इस के ब'अद मिरा इम्तिहान क्या लेगा ये एक मेला है व'अदा किसी से क्या लेगा ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा...

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है...

जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता...

झूट के आगे पीछे दरिया चलते हैं सच बोला तो प्यासा मारा जाएगा...

मोहब्बत में बिछड़ने का हुनर सब को नहीं आता किसी को छोड़ना हो तो मुलाक़ातें बड़ी करना...

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती...

उदासियों में भी रस्ते निकाल लेता है अजीब दिल है गिरूँ तो सँभाल लेता है ये कैसा शख़्स है कितनी ही अच्छी बात कहो कोई बुराई का पहलू निकाल लेता है...

तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा...

न पाने से किसी के है न कुछ खोने से मतलब है ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है...

शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ...

नहीं कि अपना ज़माना भी तो नहीं आया हमें किसी से निभाना भी तो नहीं आया जिला के रख लिया हाथों के साथ दामन तक तुम्हें चराग़ बुझाना भी तो नहीं आया...

मुझे तो क़तरा ही होना बहुत सताता है इसी लिए तो समुंदर पे रहम आता है वो इस तरह भी मिरी अहमियत घटाता है कि मुझ से मिलने में शर्तें बहुत लगाता है...

मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है...

वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया ऐसी भी क्या शराब कि पैमाना जल गया...