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है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की आँखों के तले फिरती है तस्वीर किसी की गिर्या भी है नाला भी है और आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी पर दिल में हुई उस के न तासीर किसी की...

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी...

इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल दुनिया है चल-चलाओ का रस्ता सँभल के चल कम-ज़र्फ़ पुर-ग़ुरूर ज़रा अपना ज़र्फ़ देख मानिंद जोश-ए-ग़म न ज़ियादा उबल के चल...

न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल तुम्हें देना ही होगा बोसा ख़म-रूई से क्या हासिल दिल-आज़ारी ने तेरी कर दिया बिल्कुल मुझे बे-दिल न कर अब मेरी दिल-जूई कि दिल-जूई से क्या हासिल...

लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में...

ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो मिरे फ़साना-ए-ग़म को मिरी ज़बाँ से सुनो...

न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हज्र है तेरा फ़रमाना...

बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर मलक को देव को जिन को परी को हूर ओ ग़िल्माँ को...

मेरे सुर्ख़ लहू से चमकी कितने हाथों में मेहंदी शहर में जिस दिन क़त्ल हुआ मैं ईद मनाई लोगों ने...

याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है वाँ हाथ में आईना है गुल पैरहनी है हाथों से हमें इश्क़ के दिन रात नहीं चैन फ़रियाद ओ फ़ुग़ाँ दिन को है शब नारा-ज़नी है...

ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू पर जो फ़रियादी हैं उन की सुन तो ले फ़रियाद तू दम-ब-दम भरते हैं हम तेरी हवा-ख़्वाही का दम कर न बद-ख़ूओं के कहने से हमें बर्बाद तू...

बनाया है 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर मलक को देव को जिन को परी को हूर ओ ग़िल्माँ को...

ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी मैं तो उस में भी देखता कुछ हूँ...

पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या जब मिरा ख़ूँ हो चुका शमशीर फिर खींची तो क्या ऐ मुहव्विस जब कि ज़र तेरे नसीबों में नहीं तू ने मेहनत भी पय-ए-इक्सीर फिर खींची तो क्या...

नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा कोई और बला से रहा न रहा दिया अपनी ख़ुदी को जो हम ने उठा वो जो पर्दा सा बीच में था न रहा रहे पर्दे में अब न वो पर्दा-नशीं कोई दूसरा उस के सिवा न रहा...

जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो गिर्ये से शाम-ओ-सहर क्यूँ कि हमें काम न हो ले गया दिल का जो आराम हमारे या रब उस दिल-आराम को मुतलक़ कभी आराम न हो...

वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है और यहाँ कुछ आरज़ू बिस्मिल के दिल में और है वस्ल की ठहरावे ज़ालिम तो किसी सूरत से आज वर्ना ठहरी कुछ तिरे माइल के दिल में और है...

सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें गर हमें मालूम हो कुछ उस की ख़्वाहिश और है...

कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए...

याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में वो बैठते भी हैं तो मिरे हम-नशीं से दूर...

ये चमन यूँही रहेगा और हज़ारों बुलबुलें अपनी अपनी बोलियाँ सब बोल कर उड़ जाएँगी...

शमशीर-ए-बरहना माँग ग़ज़ब बालों की महक फिर वैसी ही जूड़े की गुंधावट क़हर-ए-ख़ुदा बालों की महक फिर वैसी ही आँखें हैं कटोरा सी वो सितम गर्दन है सुराही-दार ग़ज़ब और उसी में शराब-ए-सुर्ख़ी-ए-पाँ रखती है झलक फिर वैसी ही...

गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है करूँ उस सितम को मैं क्या बयाँ मिरा ग़म से सीना फ़िगार है ये रेआया-ए-हिन्द तबह हुई कहूँ क्या जो इन पे जफ़ा हुई जिसे देखा हाकिम-ए-वक़त ने कहा ये भी क़ाबिल-ए-दार है...

मैं हूँ आसी कि पुर-ख़ता कुछ हूँ तेरा बंदा हूँ ऐ ख़ुदा कुछ हूँ जुज़्व ओ कुल को नहीं समझता मैं दिल में थोड़ा सा जानता कुछ हूँ...

निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ इधर से क्या न हुआ पर उधर से कुछ न हुआ जवाब-ए-साफ़ तो लाता अगर न लाता ख़त लिखा नसीब का जो नामा-बर से कुछ न हुआ...

जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं फ़िल्स-ए-माही को बताते माह-ए-रौशन आप हैं सीते हैं सोज़न से चाक-ए-सीना क्या ऐ चारासाज़ ख़ार-ए-ग़म सीने में अपने मिस्ल-ए-सोज़न आप हैं...

हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते पर जो सबब-ए-ग़म है वो हम कह नहीं सकते हम देखते हैं तुम में ख़ुदा जाने बुतो क्या इस भेद को अल्लाह की क़सम कह नहीं सकते...

लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में...

तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा शम्अ होगी जहाँ परवाना वहाँ पहुँचेगा...

हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा तू भी न हुआ यार और इक यार भी छोड़ा क्या होगा रफ़ूगर से रफ़ू मेरा गरेबान ऐ दस्त-ए-जुनूँ तू ने नहीं तार भी छोड़ा...

चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना देख कर तस्वीर को तस्वीर फिर खींची तो क्या...

मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम दिल के हाथों से पड़े कैसी गिरफ़्तारी में हम सब पे रौशन है हमारी सोज़िश-ए-दिल बज़्म में शम्अ साँ जलते हैं अपनी गर्म-बाज़ारी में हम...

क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते कुछ करते हैं ऐसा ब-ख़ुदा कुछ नहीं करते अपने मरज़-ए-ग़म का हकीम और कोई है हम और तबीबों की दवा कुछ नहीं करते...

न मुझ को कहने की ताक़त कहूँ तो क्या अहवाल न उस को सुनने की फ़ुर्सत कहूँ तो किस से कहूँ...

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में...

बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में...

हमदमो दिल के लगाने में कहो लगता है क्या पर छुड़ाना इस का मुश्किल है लगाना सहल है...

न दाइम ग़म है ने इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है तबद्दुल याँ है हर साअत कभी यूँ है कभी वूँ है गरेबाँ-चाक हूँ गाहे उड़ाता ख़ाक हूँ गाहे लिए फिरती मुझे वहशत कभी यूँ है कभी वूँ है...

वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले बला से उस की गर उस में किसी मुज़्तर का दम निकले कहाँ आँसू के क़तरे ख़ून-ए-दिल से हैं बहम निकले ये दिल में जम्अ थे मुद्दत से कुछ पैकान-ए-ग़म निकले...

हम ही उन को बाम पे लाए और हमीं महरूम रहे पर्दा हमारे नाम से उट्ठा आँख लड़ाई लोगों ने...