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सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़ सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं...

देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद वो मुस्कुरा दिया ये हुनर भी उसी का था...

कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते...

क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ शायद इस ज़ख़्म को भरने में ज़माने लग जाएँ नहीं ऐसा भी कि इक उम्र की क़ुर्बत के नशे एक दो रोज़ की रंजिश से ठिकाने लग जाएँ...

'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़' था तो वो दीवाना सा शाइर मगर अच्छा लगा...

ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें साक़िया साक़िया सँभाल हमें...

शोअ'ला था जल बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदाएँ मुझे न दो जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएँ मुझे न दो...

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़ लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़ अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़...

सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना इस शहर-ए-दिल-नवाज़ के आदाब देखना तुझ को कहाँ छुपाएँ कि दिल पर गिरफ़्त हो आँखों को क्या करें कि वही ख़्वाब देखना...

भले दिनों की बात है भली सी एक शक्ल थी न ये कि हुस्न-ए-ताम हो न देखने में आम सी...

सब ख़्वाहिशें पूरी हों 'फ़राज़' ऐसा नहीं है जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते...

कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी जैसे तमाम उम्र किसी दूसरे के घर में रहा...

सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ बड़ा उदास समाँ है क़रीब आ जाओ न तुम को ख़ुद पे भरोसा न हम को ज़ोम-ए-वफ़ा न ए'तिबार-ए-जहाँ है क़रीब आ जाओ...

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा इतना मानूस न हो ख़ल्वत-ए-ग़म से अपनी तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा...

क़ामत को तेरे सर्व सनोबर नहीं कहा जैसा भी तू था उस से तो बढ़ कर नहीं कहा उस से मिले तो ज़ोम-ए-तकल्लुम के बावजूद जो सोच कर गए वही अक्सर नहीं कहा...

मंज़िलें एक सी आवारगीयाँ एक सी हैं मुख़्तलिफ़ हो के भी सब ज़िंदगियाँ एक सी हैं कोई क़ासिद हो कि नासेह कोई आशिक़ कि अदू सब की उस शोख़ से वाबसतगीयाँ एक सी हैं...

जो ग़ैर थे वो इसी बात पर हमारे हुए कि हम से दोस्त बहुत बे-ख़बर हमारे हुए किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए...

तुम अपने अक़ीदों के नेज़े हर दिल में उतारे जाते हो हम लोग मोहब्बत वाले हैं तुम ख़ंजर क्यूँ लहराते हो...

था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी इश्क़ ज़िंदा नहीं रहता है ज़ियादा यूँ भी इक तो इन आँखों में नश्शा था बला का उस पर हम को मर्ग़ूब है कैफ़ियत-ए-बादा यूँ भी...

ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी कि हार मान ली लेकिन मदद नहीं माँगी हज़ार शुक्र कि हम अहल-ए-हर्फ़-ए-ज़िंदा ने मुजाविरान-ए-अदब से सनद नहीं माँगी...

बंदगी हम ने छोड़ दी है 'फ़राज़' क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ...

यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ ज़िंदगी हम तिरे हाथों से न मारे जाएँ अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ...

सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं हम ग़ज़ल में भी हुनर यार के रख देते हैं शायद आ जाएँ कभी चश्म-ए-ख़रीदार में हम जान ओ दिल बीच में बाज़ार के रख देते हैं...

तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त...

मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें तुम भी पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-हिना हो जाना...

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे अपने ही साए से हर गाम लरज़ जाता हूँ रास्ते में कोई दीवार खड़ी हों जैसे...

यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा लेकिन अब के नज़र आते हैं कुछ आसार जुदा...

जब हर एक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए क्या ख़बर कौन कहाँ किस का निशाना बन जाए इश्क़ ख़ुद अपने रक़ीबों को बहम करता है हम जिसे प्यार करें जान-ए-ज़माना बन जाए...

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें...

उजाड़ घर में ये ख़ुशबू कहाँ से आई है कोई तो है दर-ओ-दीवार के अलावा भी...

क्या कहें कितने मरासिम थे हमारे उस से वो जो इक शख़्स है मुँह फेर के जाने वाला...

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं...

हर कोई तुर्रा-ए-पेचाक पहन कर निकला एक मैं पैरहन-ए-ख़ाक पहन कर निकला और फिर सब ने ये देखा कि इसी मक़्तल से मेरा क़ातिल मिरी पोशाक पहन कर निकला...

और 'फ़राज़' चाहिएँ कितनी मोहब्बतें तुझे माओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया...

इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा उस पे महफ़िल में सुराही ने भी गर्दिश नहीं की...

न मिरे ज़ख़्म खिले हैं न तेरा रंग-ए-हिना मौसम आए ही नहीं अब के गुलाबों वाले...

जब भी दिल खोल के रोए होंगे लोग आराम से सोए होंगे...

ये बे-दिली है तो कश्ती से यार क्या उतरें उधर भी कौन है दरिया के पार क्या उतरें तमाम दौलत-ए-जाँ हार दी मोहब्बत में जो ज़िंदगी से लिए थे उधार क्या उतरें...

वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले मुझ से या-रब मिरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले...

दिल मुनाफ़िक़ था शब-ए-हिज्र में सोया कैसा और जब तुझ से मिला टूट के रोया कैसा ज़िंदगी में भी ग़ज़ल ही का क़रीना रक्खा ख़्वाब-दर-ख़्वाब तिरे ग़म को पिरोया कैसा...