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नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है...

वो जिस घमंड से बिछड़ा गिला तो इस का है कि सारी बात मोहब्बत में रख-रखाव की थी...

टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं 'फ़राज़' मेरे बदन पे जैसे शिकस्तों का जाल हो...

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा...

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी मैं भी शहर-ए-वफ़ा में नौ-वारिद वो भी रुक रुक के चल रही है अभी...

अब मिरे दूसरे बाज़ू पे वो शमशीर है जो इस से पहले भी मिरा निस्फ़ बदन काट चुकी उसी बंदूक़ की नाली है मिरी सम्त कि जो इस से पहले मिरी शह-रग का लहू चाट चुकी...

ये क्या कि सब से बयाँ दिल की हालतें करनी 'फ़राज़' तुझ को न आईं मोहब्बतें करनी ये क़ुर्ब क्या है कि तू सामने है और हमें शुमार अभी से जुदाई की साअतें करनी...

कितने नादाँ हैं तिरे भूलने वाले कि तुझे याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे...

हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे...

मैं कि दो रोज़ का मेहमान तिरे शहर में था अब चला हूँ तो कोई फ़ैसला कर भी न सका ज़िंदगी की ये घड़ी टूटता पुल हो जैसे कि ठहर भी न सकूँ और गुज़र भी न सकूँ...

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ...

मेरे शहर के सारे रस्ते बंद हैं लोगो मैं इस शहर का नग़्मा-गर जो दो इक मौसम ग़ुर्बत के दुख झेल के आया ताकि अपने घर की दीवारों से...

अब तिरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आए और से और हुए दर्द के उनवाँ जानाँ...

ये शहर सेहर-ज़दा है सदा किसी की नहीं यहाँ ख़ुद अपने लिए भी दुआ किसी की नहीं ख़िज़ाँ में चाक गरेबाँ था मैं बहार में तू मगर ये फ़स्ल-ए-सितम-आश्ना किसी की नहीं...

वफ़ा के बाब में इल्ज़ाम-ए-आशिक़ी न लिया कि तेरी बात की और तेरा नाम भी न लिया ख़ुशा वो लोग कि महरूम-ए-इल्तिफ़ात रहे तिरे करम को ब-अंदाज़-ए-सादगी न लिया...

ब-ज़ाहिर एक ही शब है फ़िराक़-ए-यार मगर कोई गुज़ारने बैठे तो उम्र सारी लगे...

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे दिल वो बे-मेहर कि रोने के बहाने माँगे हम न होते तो किसी और के चर्चे होते ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे...

फ़ज़ा उदास है रुत मुज़्महिल है मैं चुप हूँ जो हो सके तो चला आ किसी की ख़ातिर तू...

इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़' अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए...

पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच हम ने सर गिरते हुए देखे हैं बाज़ार के बीच बाग़बानों को अजब रंज से तकते हैं गुलाब गुल-फ़रोश आज बहुत जमा हैं गुलज़ार के बीच...

किसे ख़बर वो मोहब्बत थी या रक़ाबत थी बहुत से लोग तुझे देख कर हमारे हुए...

दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहाँ हिज्र फिर हिज्र है विसाल कहाँ इश्क़ है नाम इंतिहाओं का इस समुंदर में ए'तिदाल कहाँ...

क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम का दुख नहीं पर दिल ये चाहता है कि आग़ाज़ तू करे...

मिसाल-ए-दस्त-ए-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है ये दिल भी दामन-ए-यूसुफ़ है चाक चाहता है दुआएँ दो मिरे क़ातिल को तुम कि शहर का शहर उसी के हाथ से होना हलाक चाहता है...

दो घड़ी उस से रहो दूर तो यूँ लगता है जिस तरह साया-ए-दीवार से दीवार जुदा...

तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत है ज़िंदगी ख़ुद को गँवा के कौन तिरी जुस्तुजू करे...

वो दुश्मन-ए-जाँ जान से प्यारा भी कभी था अब किस से कहें कोई हमारा भी कभी था उतरा है रग-ओ-पै में तो दिल कट सा गया है ये ज़हर-ए-जुदाई कि गवारा भी कभी था...

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को कि ख़ुद जुदा है तू मुझ से न कर जुदा मुझ को वो कपकपाते हुए होंट मेरे शाने पर वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझ को...

देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी देखूँ ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो...

इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ...

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ढूँड उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें...

सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है ज़िंदगी ने मुझे कुछ तुम से ज़ियादा पहना...

इक ये भी तो अंदाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते...

इतनी मुद्दत दिल-ए-आवारा कहाँ था कि तुझे अपने ही घर के दर-ओ-बाम भुला बैठे हैं याद यारों ने तो कब हर्फ़-ए-मोहब्बत रक्खा ग़ैर भी तअना ओ दुश्नाम भुला बैठे हैं...

इश्क़ नश्शा है न जादू जो उतर भी जाए ये तो इक सैल-ए-बला है सो गुज़र भी जाए तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन कब से अज़ाब-ए-जाँ है अब तो ये ज़हर रग ओ पय में उतर भी जाए...

चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़' दुनिया तो अर्ज़-ए-हाल से बे-आबरू करे...

गुमाँ यही है कि दिल ख़ुद उधर को जाता है सो शक का फ़ाएदा उस की नज़र को जाता है हदें वफ़ा की भी आख़िर हवस से मिलती हैं ये रास्ता भी इधर से उधर को जाता है...

इस ज़िंदगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएँ हम...

ऐ दिल उन आँखों पर न जा जिन में वफ़ूर-ए-रंज से कुछ देर को तेरे लिए आँसू अगर लहरा गए...

ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते...