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वहशत थी हमें भी वही घर-बार से अब तक सर मारे हैं अपने दर ओ दीवार से अब तक मरते ही सुना उन को जिन्हें दिल-लगी कुछ थी अच्छा हुआ कोई इस आज़ार से अब तक...
क्या कहें आतिश-ए-हिज्राँ से गले जाते हैं छातियाँ सुलगें हैं ऐसी कि जले जाते हैं गौहर-ए-गोश किसू का नहीं जी से जाता आँसू मोती से मिरे मुँह पे ढले जाते हैं...
जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का शर्मिंदा तिरे रुख़ से है रुख़्सार परी का चलता नहीं कुछ आगे तिरे कब्क-ए-दरी का...
क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़ हक़-शनासों के हाँ ख़ुदा है इश्क़ दिल लगा हो तो जी जहाँ से उठा मौत का नाम प्यार का है इश्क़...
आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ मोहलत हमें बिसान-ए-शरर कम बहुत है याँ यक लहज़ा सीना-कोबी से फ़ुर्सत हमें नहीं यानी कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ...