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'मीर' साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ...

ये तवहहुम का कार-ख़ाना है याँ वही है जो ए'तिबार क्या...

वहशत थी हमें भी वही घर-बार से अब तक सर मारे हैं अपने दर ओ दीवार से अब तक मरते ही सुना उन को जिन्हें दिल-लगी कुछ थी अच्छा हुआ कोई इस आज़ार से अब तक...

होगा किसी दीवार के साए में पड़ा 'मीर' क्या काम मोहब्बत से उस आराम-तलब को...

मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं...

लगा न दिल को कहीं क्या सुना नहीं तू ने जो कुछ कि 'मीर' का इस आशिक़ी ने हाल किया...

जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए...

क्या कहें आतिश-ए-हिज्राँ से गले जाते हैं छातियाँ सुलगें हैं ऐसी कि जले जाते हैं गौहर-ए-गोश किसू का नहीं जी से जाता आँसू मोती से मिरे मुँह पे ढले जाते हैं...

रोते फिरते हैं सारी सारी रात अब यही रोज़गार है अपना...

इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ...

जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का शर्मिंदा तिरे रुख़ से है रुख़्सार परी का चलता नहीं कुछ आगे तिरे कब्क-ए-दरी का...

क्या हक़ीक़त कहूँ कि क्या है इश्क़ हक़-शनासों के हाँ ख़ुदा है इश्क़ दिल लगा हो तो जी जहाँ से उठा मौत का नाम प्यार का है इश्क़...

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़ उसी ख़ाना-ख़राब की सी है...

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है...

जम गया ख़ूँ कफ़-ए-क़ातिल पे तिरा 'मीर' ज़ि-बस उन ने रो रो दिया कल हाथ को धोते धोते...

आ जाएँ हम नज़र जो कोई दम बहुत है याँ मोहलत हमें बिसान-ए-शरर कम बहुत है याँ यक लहज़ा सीना-कोबी से फ़ुर्सत हमें नहीं यानी कि दिल के जाने का मातम बहुत है याँ...

आवरगान-ए-इश्क़ का पूछा जो मैं निशाँ मुश्त-ए-ग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया...

किसू से दिल नहीं मिलता है या रब हुआ था किस घड़ी उन से जुदा मैं...

इश्क़ करते हैं उस परी-रू से 'मीर' साहब भी क्या दिवाने हैं...