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फिर उसी वादी-ए-शादाब में लौट आया हूँ जिस में पिन्हाँ मिरे ख़्वाबों की तरब-गाहें हैं मेरे अहबाब के सामान-ए-ताय्युश के लिए शोख़ सीने हैं जवाँ जिस्म हसीं बाँहें हैं...

पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जम्हूर की क़ब्र कितने गुम-गश्ता फ़सानों का पता देती है कितने ख़ूँ-रेज़ हक़ाएक़ से उठाती है नक़ाब कितनी कुचली हुई जानों का पता देती है...

फ़रेब-ए-जन्नत-ए-फ़र्दा के जाल टूट गए हयात अपनी उमीदों पे शर्मसार सी है चमन में जश्न-ए-वरूद-ए-बहार हो भी चुका मगर निगाह-ए-गुल-ओ-लाला सोगवार सी है...

मेरी नाकाम मोहब्बत की कहानी मत छेड़ अपनी मायूस उमंगों का फ़साना न सुना ज़िंदगी तल्ख़ सही ज़हर सही सम ही सही दर्द ओ आज़ार सही जब्र सही ग़म ही सही...

मैं ने हर चंद ग़म-ए-इश्क़ को खोना चाहा ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-दुनिया में समोना चाहा वही अफ़्साने मिरी सम्त रवाँ हैं अब तक वही शोले मिरे सीने में निहाँ हैं अब तक...

मिरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है मिरी फ़ितरत को ख़ूँ-रेज़ी के अफ़्साने से रग़बत है...

मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझ को मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है कि नहीं...

ख़ल्वत-ओ-जल्वत में तुम मुझ से मिली हो बार-हा तुम ने क्या देखा नहीं मैं मुस्कुरा सकता नहीं मैं कि मायूसी मिरी फ़ितरत में दाख़िल हो चुकी जब्र भी ख़ुद पर करूँ तो गुनगुना सकता नहीं...

तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बे-दिली से हम...

तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ...

फिर न कीजे मिरी गुस्ताख़-निगाही का गिला देखिए आप ने फिर प्यार से देखा मुझ को...

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है...

फिर खो न जाएँ हम कहीं दुनिया की भीड़ में मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी...

मायूसी-ए-मआल-ए-मोहब्बत न पूछिए अपनों से पेश आए हैं बेगानगी से हम...

मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ...

ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुज़री...

अपने सीने से लगाए हुए उम्मीद की लाश मुद्दतों ज़ीस्त को नाशाद किया है मैं ने तू ने तो एक ही सदमे से क्या था दो-चार दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैं ने...

वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें...

उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गईं आई गई...

उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा मैं ने शबनम को भी शोलों पे मचलते देखा...

तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूँडो चाहा था तुम्हें इक यही इल्ज़ाम बहुत है...

तुम्हारे अहद-ए-वफ़ा को मैं अहद क्या समझूँ मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत पे ए'तिबार नहीं...

तुझ को ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को बर्बाद कर दिया तिरे दो दिन के प्यार ने...

तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं महफ़िल में तुम्हारे आने से हर चीज़ पे नूर आ जाता है...

चंद लम्हों के लिए शोर उठा डूब गया कोहना ज़ंजीर-ए-ग़ुलामी की गिरह कट न सकी फिर वही सैल-ए-बला है वही दाम-ए-अमवाज ना-ख़ुदाओं में सफ़ीने की जगह बट न सकी...

वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा...

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मअ'नी...

वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा...

रात सुनसान थी बोझल थीं फ़ज़ा की साँसें रूह पर छाए थे बे-नाम ग़मों के साए दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने मेरी कोशिश थी कि कम्बख़्त को नींद आ जाए...

फूट पड़ीं मशरिक़ से किरनें हाल बना माज़ी का फ़साना गूँजा मुस्तक़बिल का तराना भेजे हैं अहबाब ने तोहफ़े...

अहद-ए-गुम-गश्ता की तस्वीर दिखाती क्यूँ हो एक आवारा-ए-मंज़िल को सताती क्यूँ हो वो हसीं अहद जो शर्मिंदा-ए-ईफ़ा न हुआ उस हसीं अहद का मफ़्हूम जताती क्यूँ हो...

ज़ेहन में अज़्मत-ए-अज्दाद के क़िस्से ले कर अपने तारीक घरोंदों के ख़ला में खो जाओ मरमरीं ख़्वाबों की परियों से लिपट कर सो जाओ अब्र पारों पे चलो, चाँद सितारों में उड़ो...

जीने से दिल बेज़ार है हर साँस इक आज़ार है कितनी हज़ीं है ज़िंदगी अंदोह-गीं है ज़िंदगी...

चंद कलियाँ नशात की चुन कर मुद्दतों महव-ए-यास रहता हूँ तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही तुझ से मिल कर उदास रहता हूँ...

मुसव्विर मैं तिरा शहकार वापस करने आया हूँ अब उन रंगीन रुख़्सारों में थोड़ी ज़र्दियाँ भर दे हिजाब-आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियाँ भर दे लबों की भीगी भीगी सिलवटों को मुज़्महिल कर दे...

तोड़ लेंगे हर इक शय से रिश्ता तोड़ देने की नौबत तो आए हम क़यामत के ख़ुद मुंतज़िर हैं पर किसी दिन क़यामत तो आए हम भी सुक़रात हैं अहद-ए-नौ के तिश्ना-लब ही न मर जाएँ यारो ज़हर हो या मय-ए-आतिशीं हो कोई जाम-ए-शहादत तो आए...

तेरे होंटों पे तबस्सुम की वो हल्की सी लकीर मेरे तख़्ईल में रह रह के झलक उठती है यूँ अचानक तिरे आरिज़ का ख़याल आता है जैसे ज़ुल्मत में कोई शम्अ भड़क उठती है...

गर ज़िंदगी में मिल गए फिर इत्तिफ़ाक़ से पूछेंगे अपना हाल तिरी बेबसी से हम...

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है इक धुँद से आना है इक धुँद में जाना है ये राह कहाँ से है ये राह कहाँ तक है ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है...

यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना तिरी याद तो बन गई इक बहाना...