सतगुर के सँग क्यों न गई री
सतगुर के सँग क्यों न गई री॥टेक॥ सतगुर के सँग जाती सोना बनि जाती, अब माटी के मैं मोल भई री॥1॥ सतगुर हैं मेरे प्रान-अधारा, तिनकी सरन मैं क्यों न गही री॥2॥ सतगुर स्वामी मैं दासी सतगुर की, सतगुर न भूले मैं भूल गई री॥3॥ सार को छोड़ि असार से लिपटी, धृग धृग धृग मतिमंद भई री॥4॥ प्रान-पती को छोड़ि सखी री, माया के जाल में अरुझ रही री॥5॥ जो प्रभु हैं मेरे प्रान-अधारा, तिनकी मैं क्यों ना सरन गही री॥6॥

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