तुलसीदास / भाग २
इसने ही जैसे बार-बार दूसरी शक्ति की की पुकार-- साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में; यह उसी शक्ति से है वलयित चित देश-काल का सम्यक् जित, ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में! विधि की इच्छा सर्वत्र अटल; यह देश प्रथम ही था हत-बल; वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के; तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व; द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के। चलते फिरते पर निस्सहाय, वे दीन, क्षीण कंकालकाय; आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में; रण के अश्वों से शस्य सकल दलमल जाते ज्यों, दल के दल शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में। वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष, पाते प्रहार अब हताश्वास; सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के होना ही उनका धर्म परम, वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम, वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के! रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम जो पहला पद, अब मद-विष-सम; द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया, जो देशकाल को आवृत कर फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर, देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया। इस छाया के भीतर है सब, है बँधा हुआ सारा कलरव, भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर। इसके भीतर रह देश-काल हो सकेगा न रे मुक्त-भाल, पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर। दीनों की भी दुर्बल पुकार कर सकती नहीं कदापि पार पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर, जब तक कांक्षाओं के प्रहार अपने साधन को बार-बार होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर। सोचा कवि ने, मानस-तरंग, यह भारत-संस्कृति पर सभंग फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को; इस अनिल-वाह के पार प्रखर किरणों का वह ज्योतिर्मय घर, रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो। है वही मुक्ति का सत्य रूप, यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप; वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे। चाहिए उसे और भी और, फिर साधारण को कहाँ ठौर? जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के। करना होगा यह तिमिर पार- देखना सत्य का मिहिर-द्वार- बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय- लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर, रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर- जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय। कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को-- करने को ज्ञानोद्धत प्रहार-- तोड़ने को विषम वज्र-द्वार; उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को। उस क्षण, उस छाया के ऊपर, नभ-तम की-सी तारिका सुघर; आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम शुभ रत्नावली-सरोज-दाम वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम। 'जाते हो कहाँ?' तुले तिर्यक् दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक् प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से; फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल-- इन्दीवर के-से कोश विमल; फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से। उस ऊँचे नभ का, गुंजनपर, मंजुल जीवन का मन-मधुकर, खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को बैठा ही था सुख से क्षण-भर, मुँद गये पलों के दल मृदुतर, रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो। उसके अदृश्य होते ही रे, उतरा वह मन धीरे-धीरे, केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय; यह वही प्रकृति पर रूप अन्य; जगमग-जगमग सब वेश वन्य; सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय। यह श्री पावन, गृहिणी उदार; गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार; कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती; सब जीवों पर है एक दृष्टि, तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि, प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती। ये जिस कर के रे झंकृत स्वर गूँजते हुए इतने सुखकर, खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते; व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर, रागिनी की लहर गिरि-वन-सर तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते। यों धीरे-धीरे उतर-उतर आया मन निज पहली स्थिति पर; खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा; विश्राम के लिए मित्र-प्रवर बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर; वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा। फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे। फिर कोटितीर्थ देवांगनादि लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे। आये हनुमद्धारा द्रुततर, झरता झरना वीर पर प्रखर, लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर; फिर उतरे गिरि, चल किया पार पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार; स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर। कामदागिरि का कर परिक्रमण आये जानकी-कुण्ड सब जन; फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम, फिर भरतकूप, रह इस प्रकार, कुछ दिन सब जन कर वन-विहार लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम। प्रेयसी के अलक नील, व्योम; दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम; निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर; पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर देखता भूल दिक् उसी ओर; कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर। जिस शुचि प्रकाश का सौर-जगत् रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्, वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से; अविनश्वर वही ज्ञान भीतर, बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से। देखता, नवल चल दीप युगल नयनों के, आभा के कोमल; प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के, गृह की सीमा के स्वच्छभास-- भीतर के, बाहर के प्रकाश, जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के। पर वही द्वन्द्व के कारण, बन्ध की श्रृंखला के धारण, निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय; वे पलकों के उस पार, अर्थ हो सका न, वे ऐसे समर्थ; सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।

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