बादल राग / भाग ३
सिन्धु के अश्रु! धरा के खिन्न दिवस के दाह! बिदाई के अनिमेष नयन! मौन उर में चिन्हित कर चाह छोड़ अपना परिचित संसार-- सुरभि के कारागार, चले जाते हो सेवा पथ पर, तरु के सुमन! सफल करके मरीचिमाली का चारु चयन। स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर, सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर अपना मुक्त विहार, छाया में दुख के अंतःपुर का उद्घाटित द्वार छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार, जाते हो तुम अपने रथ पर, स्मृति के गृह में रखकर अपनी सुधि के सज्जित तार। पूर्ण मनोरथ! आये-- तुम आये; रथ का घर्घर-नाद तुम्हारे आने का सम्वाद। ऐ त्रिलोक-जित! इन्द्र-धनुर्धर! सुर बालाओं के सुख-स्वागत! विजय विश्व में नव जीवन भर, उतरो अपने रथ से भारत! उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर, कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ, मौन कुटीर। आज भेंट होगी-- हाँ, होगी निस्सन्देह, आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास, आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

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