बादल राग / भाग ४
उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से, घर से क्रीड़ारत बालक-से, ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार! स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार! अन्धकार-- घन अन्धकार ही क्रीड़ा का आगार। चौंक चमक छिप जाती विद्युत तडिद्दाम अभिराम, तुम्हारे कुंचित केशों में अधीर विक्षुब्ध ताल पर एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम। वर्ण रश्मियों-से कितने ही छा जाते हैं मुख पर-- जग के अंतस्थल से उमड़ नयन पलकों पर छाये सुख पर; रंग अपार किरण तूलिकाओं से अंकित इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; -- व्योम और जगती के राग उदार मध्यदेश में, गुडाकेश! गाते हो वारम्वार। मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में स्वरारोह, अवरोह, विघात, मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि छा लेती है गगन, श्याम कानन, सुरभित उद्यान, झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात। वधिर विश्व के कानों में भरते हो अपना राग, मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।

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