बादल राग / भाग ६
तिरती है समीर-सागर पर अस्थिर सुख पर दुःख की छाया- जग के दग्ध हृदय पर निर्दय विप्लव की प्लावित माया- यह तेरी रण-तरी भरी आकांक्षाओं से, घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर उर में पृथ्वी के, आशाओं से नवजीवन की, ऊँचा कर सिर, ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल! फिर-फिर! बार-बार गर्जन वर्षण है मूसलधार, हृदय थाम लेता संसार, सुन-सुन घोर वज्र हुँकार। अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर, क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर, गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर। हँसते है छोटे पौधे लघुभार- शस्य अपार, हिल-हिल खिल-खिल, हाथ मिलाते, तुझे बुलाते, विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते। अट्टालिका नही है रे आतंक-भवन, सदा पंक पर ही होता जल-विप्लव प्लावन, क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से सदा छलकता नीर, रोग-शोक में भी हँसता है शैशव का सुकुमार शरीर। रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष, अंगना-अंग से लिपटे भी आतंक-अंक पर काँप रहे हैं धनी, वज्र-गर्जन से, बादल! त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है। जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर तुझे बुलाता कृषक अधीर, ऐ विप्लव के वीर! चूस लिया है उसका सार, हाड़ मात्र ही है आधार, ऐ जीवन के पारावार!

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