राम की शक्ति पूजा / पृष्ठ १
रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर, शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर, प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह, विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण, लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान, राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर, उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर, अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव, विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव, रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल, मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल, वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध, गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध, उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर, जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर। लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल, बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल। वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न। प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण, श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण, दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार। आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल। बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर, सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर, पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर, सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर, यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश। है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार, अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल, भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल। स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय, जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त, एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त, कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार, असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार। ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,- पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,- काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,- गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,- ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,- जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय। सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त, हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त, फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर, फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर, वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,- फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत, देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर, ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;

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