राम की शक्ति पूजा / पृष्ठ ३
कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय, तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय! रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार, जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार, बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर, कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर, सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्? सब सभा रही निस्तब्ध राम के स्तिमित नयन छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन, जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव, ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति, पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति। कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर, बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर, यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण, उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण, अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल, रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव, व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव, निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम। निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान। रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर, यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर! करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित, हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित, जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार, हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार। शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक, जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक, जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित, वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित! देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक, लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक, हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार, निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार। विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों, झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों, पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त, फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!" कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर, बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर, विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण, हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर। रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त, शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन। छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन! तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक, मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक। मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान, नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान। सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।" खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!" कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ। हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार, देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार। कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन, बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित "मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित; हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित; जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित! यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित, मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

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