राम की शक्ति पूजा / पृष्ठ २
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को, ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण, पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन; लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन, खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन; फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल, भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल। बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द- युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य; साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद, दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद् पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम, जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम। युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल, देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल; ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,- सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ; टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल, सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन, व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन। "ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार, उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार, हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल, शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़, जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़, तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष, शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव, जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास। रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार, यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार; उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित, इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित, करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल, लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल, श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर, अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर, चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य, मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य, लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार; विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध, झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।" कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय। बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल, यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह। यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह। यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल, पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में, क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने? तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य, क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?" कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन, उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन। राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण, "हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर, रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित, है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित, हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण, हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन, ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर, अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर, फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर। रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण, तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।

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