सरोज स्मृति / पृष्ठ ४
आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल, आई पुतली तू खिल-खिल-खिल हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन सोचता हुआ विवाह-बन्धन। कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो" आई तू, दिया, कहा--"खेलो।" कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश आईं करने को बातचीत जो कल होनेवाली, अजीत, संकेत किया मैंने अखिन्न जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न; देखने लगीं वे विस्मय भर तू बैठी संचित टुकडों पर। धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण, बाल्य की केलियों का प्रांगण कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर आईं, लावण्य-भार थर-थर काँपा कोमलता पर सस्वर ज्यौं मालकौस नव वीणा पर, नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद फूटी उषा जागरण छंद काँपी भर निज आलोक-भार, काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार। परिचय-परिचय पर खिला सकल -- नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार ज्यों भोगावती उठी अपार, उमड़ता उर्ध्व को कल सलील जल टलमल करता नील नील, पर बँधा देह के दिव्य बाँध; छलकता दृगों से साध साध। फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर माँ की मधुरिमा व्यंजना भर हर पिता कंठ की दृप्त-धार उत्कलित रागिनी की बहार! बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि, मेरे स्वर की रागिनी वह्लि साकार हुई दृष्टि में सुघर, समझा मैं क्या संस्कार प्रखर। शिक्षा के बिना बना वह स्वर है, सुना न अब तक पृथ्वी पर! जाना बस, पिक-बालिका प्रथम पल अन्य नीड़ में जब सक्षम होती उड़ने को, अपना स्वर भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर। तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि, जागा उर में तेरा प्रिय कवि, उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज बह चली एक अज्ञात बात चूमती केश--मृदु नवल गात, देखती सकल निष्पलक-नयन तू, समझा मैं तेरा जीवन। सासु ने कहा लख एक दिवस :-- "भैया अब नहीं हमारा बस, पालना-पोसना रहा काम, देना 'सरोज' को धन्य-धाम, शुचि वर के कर, कुलीन लखकर, है काम तुम्हारा धर्मोत्तर; अब कुछ दिन इसे साथ लेकर अपने घर रहो, ढूंढकर वर जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह होंगे सहाय हम सहोत्साह।" सुनकर, गुनकर, चुपचाप रहा, कुछ भी न कहा, -- न अहो, न अहा; ले चला साथ मैं तुझे कनक ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक अपने जीवन की, प्रभा विमल ले आया निज गृह-छाया-तल। सोचा मन में हत बार-बार -- "ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार, खाकर पत्तल में करें छेद, इनके कर कन्या, अर्थ खेद, इस विषय-बेलि में विष ही फल, यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।" फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण गुजरे जिस राह, वही शोभन होगा मुझको, यह लोक-रीति कर दूं पूरी, गो नहीं भीति कुछ मुझे तोड़ते गत विचार; पर पूर्ण रूप प्राचीन भार ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय आयेगी मुझमें नहीं विनय उतनी जो रेखा करे पार सौहार्द्र-बंध की निराधार।

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