सरोज स्मृति / पृष्ठ ५
वे जो यमुना के-से कछार पद फटे बिवाई के, उधार खाये के मुख ज्यों पिये तेल चमरौधे जूते से सकेल निकले, जी लेते, घोर-गंध, उन चरणों को मैं यथा अंध, कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति। ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह करने की मुझको नहीं चाह!" फिर आई याद -- "मुझे सज्जन है मिला प्रथम ही विद्वज्जन नवयुवक एक, सत्साहित्यिक, कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक होगा कोई इंगित अदृश्य, मेरे हित है हित यही स्पृश्य अभिनन्दनीय।" बँध गया भाव, खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव, खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण, युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन। बोला मैं -- "मैं हूँ रिक्त-हस्त इस समय, विवेचन में समस्त -- जो कुछ है मेरा अपना धन पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण यदि महाजनों को तो विवाह कर सकता हूँ, पर नहीं चाह मेरी ऐसी, दहेज देकर मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर, बारात बुला कर मिथ्या व्यय मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय। तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम मैं सामाजिक योग के प्रथम, लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र। जो कुछ मेरे, वह कन्या का, निश्चय समझो, कुल धन्या का।" आये पंडित जी, प्रजावर्ग, आमन्त्रित साहित्यिक ससर्ग देखा विवाह आमूल नवल, तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल। देखती मुझे तू हँसी मन्द, होंठो में बिजली फँसी स्पन्द उर में भर झूली छवि सुन्दर, प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर तू खुली एक उच्छवास संग, विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग, नत नयनों से आलोक उतर काँपा अधरों पर थर-थर-थर। देखा मैनें वह मूर्ति-धीति मेरे वसन्त की प्रथम गीति -- श्रृंगार, रहा जो निराकार, रस कविता में उच्छ्वसित-धार गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग -- भरता प्राणों में राग-रंग, रति-रूप प्राप्त कर रहा वही, आकाश बदल कर बना मही। हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन कोई थे नहीं, न आमन्त्रण था भेजा गया, विवाह-राग भर रहा न घर निशि-दिवस जाग; प्रिय मौन एक संगीत भरा नव जीवन के स्वर पर उतरा। माँ की कुल शिक्षा मैंने दी, पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची, सोचा मन में, "वह शकुन्तला, पर पाठ अन्य यह अन्य कला।" कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद बैठी नानी की स्नेह-गोद। मामा-मामी का रहा प्यार, भर जलद धरा को ज्यों अपार; वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त, तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त; वह लता वहीं की, जहाँ कली तू खिली, स्नेह से हिली, पली, अंत भी उसी गोद में शरण ली, मूंदे दृग वर महामरण! मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल युग वर्ष बाद जब हुई विकल, दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही! हो इसी कर्म पर वज्रपात यदि धर्म, रहे नत सदा माथ इस पथ पर, मेरे कार्य सकल हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल! कन्ये, गत कर्मों का अर्पण कर, करता मैं तेरा तर्पण!

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