सरोज स्मृति / पृष्ठ २
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। -- देखें वे; हसँते हुए प्रवर, जो रहे देखते सदा समर, एक साथ जब शत घात घूर्ण आते थे मुझ पर तुले तूर्ण, देखता रहा मैं खडा़ अपल वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल। व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल। और भी फलित होगी वह छवि, जागे जीवन-जीवन का रवि, लेकर-कर कल तूलिका कला, देखो क्या रँग भरती विमला, वांछित उस किस लांछित छवि पर फेरती स्नेह कूची भर। अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम कर नहीं सका पोषण उत्तम कुछ दिन को, जब तू रही साथ, अपने गौरव से झुका माथ, पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर, छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर। आँसुओं सजल दृष्टि की छलक पूरी न हुई जो रही कलक प्राणों की प्राणों में दब कर कहती लघु-लघु उसाँस में भर; समझता हुआ मैं रहा देख, हटती भी पथ पर दृष्टि टेक। तू सवा साल की जब कोमल पहचान रही ज्ञान में चपल माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण भरती जीवन में नव जीवन, वह चरित पूर्ण कर गई चली तू नानी की गोद जा पली। सब किये वहीं कौतुक-विनोद उस घर निशि-वासर भरे मोद; खाई भाई की मार, विकल रोई उत्पल-दल-दृग-छलछल, चुमकारा सिर उसने निहार फिर गंगा-तट-सैकत-विहार करने को लेकर साथ चला, तू गहकर चली हाथ चपला; आँसुओं-धुला मुख हासोच्छल, लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल। तब भी मैं इसी तरह समस्त कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त लिखता अबाध-गति मुक्त छंद,

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