हारता है मेरा मन
हारता है मेरा मन विश्व के समर में जब कलरव में मौन ज्यों शान्ति के लिए, त्यों ही हार बन रही हूँ प्रिय, गले की तुम्हारी मैं, विभूति की, गन्ध की, तृप्ति की, निशा की । जानती हूँ तुममें ही शेष है दान--मेरा अस्तित्व सब दूसरा प्रभात जब फैलेगा विश्व में कुछ न रह जाएगा तुझमें तब देने को । किन्तु आजीवन तुम एक तत्त्व समझोगे-- और क्या अधिकतर विश्व में शोभन है, अधिक प्राणों के पास, अधिक आनन्द मय, अधिक कहने के लिए प्रगति सार्थकता ।

Read Next