तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर, जो द्वार-द्वार फिर कर भीख माँगता कर फैला कर। भूख अगर रोटी की ही मिटी, भूख की जमीन न चौरस पिटी, और चाहता है वह कौर उठाना कोई देखो, उसमें उसकी इच्छा कैसे रोई, द्वार-द्वार फिर कर भीख माँगता कर फैला कर- तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर। देश का, समाज का कर्णधार हो किसी जहाज का पार करे कैसा भी सागर फिर भी रहता है चलना उसे फिर भी रहता है पीछे डर; चाहता वहाँ जाना वह भी नहीं चलाना जहाँ जहाज, नहीं सागर, नहीं डूबने का भी जहाँ डर। तुम्हें चाहता है वह, सुन्दर, जो द्वार-द्वार फिर कर भीख माँगता कर फैला कर।

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