तुमने स्वर के आलोक-ढले
तुमने स्वर के आलोक-ढले गाये हैं गाने गले-गले। बचकर भव की भंगुरता से रागों के सुमनों के बासे रंग-रेणु-गन्ध के वे भासे मीड़ों के नीड़ों से निकले। नश्वरता पर सस्वर छाये जैसे पल्लव के दल आये, वन के वसन्त के मन भाये जैसे जन बैठे छाँह-तले। बोले, अब अपना पथ सूझा, भूला जीवन-प्रकरण बूझा, प्रबल से प्रबलतर अरि जूझा, रोके जो सहसा चक्र चले।

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