धीरे धीरे हँस कर आयी
धीरे धीरे हँसकर आईं प्राणों की जर्जर परछाईं। छाया-पथ घनतर से घनतम, होता जो गया पंक-कर्दम, ढकता रवि आँखों से सत्तम, मृत्यु की प्रथम आभा भाईं। क्या गले लगाना है बढ़कर, क्या अलख जगाना अड़-अड़कर, क्या लहराना है झड़-झड़कर, जैसे तुम कहकर मुस्काईं। पिछले कुल खेल समाप्त हुए, जो नहीं मिले वर प्राप्त हुए, बीसों विष जैसे व्याप्त हुए, फिर भी न कहीं तुम घबराईं।

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