दो सदा सत्संग मुझको
दो सदा सत्संग मुझको। अनृत से पीछा छुटे, तन हो अमृत का रंग मुझको। अशन-व्यसन तुले हुए हों, खुले अपने ढंग; सत्य अभिधा साधना हो, बाधना हो व्यंग, मुझको। लगें तुमसे तन-वचन-मन, दूर रहे अनंग; बाढ़ के जल बढ़ूं, निर्मल- मिलूं एक उमंग, मुझको। शान्त हों कुल धातुएँ ये, बहे एक तरंग, रूप के गुण गगन चढ़कर, मिलूं तुमसे, ब्रह्म, मुझको।

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