बन जाय भले शुक की उक से
बन जाय भले शुक की उक से, सुख की दुख से अवनी न बनी। रुक जाय चली गति जो जग की, जन से जन-जीवन की न ठनी। बिगड़ी बनती बन जाय सही, डगड़ी गड़ती गड़ जाय मही, कटती पटती पट जाय तही, तन की मन से तनती न तनी। सब लोग भले भिड़ जांय यहाँ, जो चढ़े सिर थे, चिढ़ जांय यहाँ, जो गिरा उसकी न गिरी लवनी।

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