रमण मन के मान के तन
रमण मन के, मान के तन! तुम्हीं जग के जीव-जीवन! तुम्हीं में है महामाया, जुड़ी छुटकर विश्वकाया; कल्पतरु की कनक-छाया तुम्हारे आनन्द-कानन। तुम्हारी स्वर्सरित बहकर हर रही है ताप दुस्तर; तुम्हारे उर हैं अमर-मर, दिवाकर, शशि, तारकागण। तुम्हीं से ऋतु घूमती है, नये कलि-दल चूमती है, नये आसव झूमती है, नये गीतों, नये नर्तन!

Read Next