गोरे अधर मुस्काई
गोरे अधर मुस्काई हमारी वसन्त विदाई । अंग-अंग बलखाई हमारी वसन्त विदाई । परिमल के निर्झर जो बहे ये, नयन खुले कहते ही रहे ये- जग के निष्ठुर घात सहे ये, बात न कुछ बन पाई, कहाँ से कहाँ चली आई । भाल लगा ऊषा का टीका, चमका सहज संदेसा पी का, छूटा भय-पतिपावन जी का, फूटी तरुण अरुणाई, कि छूट गई और सगाई ।

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