बुझे तृष्णाशा-विषानल
बुझे तृष्णाशा-विषानल झरे भाषा अमृत-निर्झर, उमड़ प्राणों से गहनतर छा गगन लें अवनि के स्वर । ओस के धोए अनामिल पुष्प ज्यों खिल किरण चूमे, गंध-मुख मकरंद-उर सानन्द पुर-पुर लोग घूमे, मिटे कर्षण से धरा के पतन जो होता भयंकर, उमड़ प्राणों से निरन्तर छा गगन लें अवनि के स्वर । बढ़े वह परिचय बिंधा जो क्षुद्र भावों से हमारा, क्षिति-सलिल से उठ अनिल बन देख लें हम गगन-कारा, दूर हो तम-भेद यह जो वेद बनकर वर्ण-संकर, पार प्राणों से करें उठ गगन को भी अवनि के स्वर ।

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