नर्गिस
बीत चुका शीत, दिन वैभव का दीर्घतर डूब चुका पश्चिम में, तारक-प्रदीप-कर स्निग्ध-शान्त-दृष्टि सन्ध्या चली गई मन्द मन्द प्रिय की समाधि-ओर, हो गया है रव बन्द विहगों का नीड़ों पर, केवल गंगा का स्वर सत्य ज्यों शाश्वत सुन पड़ता है स्पष्ट तर, बहता है साथ गत गौरव का दीर्घ काल प्रहत-तरंग-कर-ललित-तरल-ताल। चैत्र का है कृष्ण पक्ष, चन्द्र तृतीया का आज उग आया गगन में, ज्योत्स्ना तनु-शुभ्र-साज नन्दन की अप्सरा धरा को विनिर्जन जान उतरी सभय करने को नैश गंगा-स्नान। तट पर उपवन सुरम्य, मैं मौनमन बैठा देखता हूँ तारतम्य विश्व का सघन; जान्हवी को घेर कर आप उठे ज्यों करार त्यों ही नभ और पृथ्वी लिये ज्योत्स्ना ज्योतिर्धार, सूक्ष्मतम होता हुआ जैसे तत्व ऊपर को गया, श्रेष्ठ मान लिया लोगों ने महाम्बर को, स्वर्ग त्यों धरा से श्रेष्ठ, बड़ी देह से कल्पना, श्रेष्ठ सृष्टि स्वर्ग की है खड़ी सशरीर ज्योत्स्ना। युवती धरा का यह था भरा वसन्त-काल, हरे-भरे स्तनों पर पड़ी कलियों की माल, सौरभ से दिक्कुमारियों का मन सींचकर बहता है पवन प्रसन्न तन खींचकर। पृथ्वी स्वर्ग से ज्यों कर रही है होड़ निष्काम मैंने फेर मुख देखा, खिली हुई अभिराम नर्गिस, प्रणय के ज्यों नयन हों एकटक मुख पर लिखी अविश्वास की रेखाएँ पढ़ स्नेह के निगड़ में ज्यों बँधे भी रहे हैं कढ़। कहती ज्यों नर्गिस--"आई जो परी पृथ्वी पर स्वर्ग की, इसी से हो गई है क्या सुन्दरतर? पार कर अन्धकार आई जो आकाश पर, सत्य कहो, मित्र, नहीं सकी स्वर्ग प्राप्त कर? कौन अधिक सुन्दर है--देह अथवा आँखें? चाहते भी जिसे तुम--पक्षी वह या कि पाँखें? स्वर्ग झुक आये यदि धरा पर तो सुन्दर या कि यदि धरा चढ़े स्वर्ग पर तो सुघर?" बही हवा नर्गिस की, मन्द छा गई सुगन्ध, धन्य, स्वर्ग यही, कह किये मैंने दृग बन्द।

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