सेवा-प्रारम्भ
अल्प दिन हुए, भक्तों ने रामकृष्ण के चरण छुए। जगी साधना जन-जन में भारत की नवाराधना। नई भारती जागी जन-जन को कर नई आरती। घेर गगन को अगणन जागे रे चन्द्र-तपन- पृथ्वी-ग्रह-तारागण ध्यानाकर्षण, हरित-कृष्ण-नील-पीत- रक्त-शुभ्र-ज्योति-नीत नव नव विश्वोपवीत, नव नव साधन। खुले नयन नवल रे-- ॠतु के-से मित्र सुमन करते ज्यों विश्व-स्तवन आमोदित किये पवन भिन्न गन्ध से। अपर ओर करता विज्ञान घोर नाद दुर्धर शत-रथ-घर्घर विश्व-विजय-वाद। स्थल-जल है समाच्छन्न विपुल-मार्ग-जाल-जन्य, तार-तार समुत्सन्न देश-महादेश, निर्मित शत लौहयन्त्र भीमकाय मृत्युतन्त्र चूस रहे अन्त्र, मन्त्र रहा यही शेष। बढ़े समर के प्रकरण, नये नये हैं प्रकरण, छाया उन्माद मरण-कोलाहल का, दर्प ज़हर, जर्जर नर, स्वार्थपूर्ण गूँजा स्वर, रहा है विरोध घहर इस-उस दल का। बँधा व्योम, बढ़ी चाह, बहा प्रखरतर प्रवाह, वैज्ञानिक समुत्साह आगे, सोये सौ-सौ विचार थपकी दे बार-बार मौलिक मन को मुधार जागे! मैक्सिम-गन करने को जीवन-संहार हुआ जहाँ, खुला वहीं नोब्ल-पुरस्कार! राजनीति नागिनी बसती है, हुई सभ्यता अभागिनी। जितने थे यहाँ नवयुवक-- ज्योति के तिलक-- खड़े सहोत्साह, एक-एक लिये हुए प्रलयानल-दाह। श्री ’विवेक’, ’ब्रह्म’, ’प्रेम’, ’सारदा’,* ज्ञान-योग-भक्ति-कर्म-धर्म-नर्मदा,-- वहीं विविध आध्यात्मिक धाराएँ तोड़ गहन प्रस्तर की काराएँ, क्षिति को कर जाने को पार, पाने को अखिल विश्व का समस्त सार। गृही भी मिले, आध्यात्मिक जीवन के रूप में यों खिले। अन्य ओर भीषण रव--यान्त्रिक झंकार-- विद्या का दम्भ, यहाँ महामौनभरा स्तब्ध निराकार-- नैसर्गिक रंग। बहुत काल बाद अमेरिका-धर्ममहासभा का निनाद विश्व ने सुना, काँपी संसृति की थी दरी, गरजा भारत का वेदान्त-केसरी। श्रीमत्स्वामी विवेकानन्द भारत के मुक्त-ज्ञानछन्द बँधे भारती के जीवन से गान गहन एक ज्यों गगन से, आये भारत, नूतन शक्ति ले जगी जाति यह रँगी। स्वामी श्रीमदखण्डानन्द जी एक और प्रति उस महिमा की, करते भिक्षा फिर निस्सम्बल भगवा-कौपीन-कमण्डलु-केवल; फिरते थे मार्ग पर जैसे जीवित विमुक्त ब्रह्म-शर। इसी समय भक्त रामकृष्ण के एक जमींदार महाशय दिखे। एक दूसरे को पहचान कर प्रेम से मिले अपना अति प्रिय जन जान कर। जमींदार अपने घर ले गये, बोले--"कितने दयालु रामकृष्ण देव थे! आप लोग धन्य हैं, उनके जो ऐसे अपने, अनन्य हैं।"-- द्रवित हुए। स्वामी जी ने कहा,-- "नवद्वीप जाने की है इच्छा,-- महाप्रभु श्रीमच्चैतन्यदेव का स्थल देखूँ, पर सम्यक निस्सम्बल हूँ इस समय, जाता है पास तक जहाज, सुना है कि छूटेगा आज!" धूप चढ़ रही थी, बाहर को ज़मींदार ने देखा,--घर को,-- फिर घड़ी, हुई उन्मन अपने आफिस का कर चिन्तन; उठे, गये भीतर, बड़ी देर बाद आये बाहर, दिया एक रूपया, फिर फिरकर चले गये आफिस को सत्वर। स्वामी जी घाट पर गये, "कल जहाज छूटेगा" सुनकर फिर रुक नहीं सके, जहाँ तक करें पैदल पार-- गंगा के तीर से चले। चढ़े दूसरे दिन स्टीमर पर लम्बा रास्ता पैदल तै कर। आया स्टीमर, उतरे प्रान्त पर, चले, देखा, हैं दृश्य और ही बदले,-- दुबले-दुबले जितने लोग, लगा देश भर को ज्यों रोग, दौड़ते हुए दिन में स्यार बस्ती में--बैठे भी गीध महाकार, आती बदबू रह-रह, हवा बह रही व्याकुल कह-कह; कहीं नहीं पहले की चहल-पहल, कठिन हुआ यह जो था बहुत सहल। सोचते व देखते हुए स्वामीजी चले जा रहे थे। इसी समय एक मुसलमान-बालिका भरे हुए पानी मृदु आती थी पथ पर, अम्बुपालिका; घड़ा गिरा, फूटा, देख बालिका का दिल टूटा, होश उड़ गये, काँपी वह सोच के, रोई चिल्लाकर, फिर ढाढ़ मार-मार कर जैसे माँ-बाप मरे हों घर। सुनकर स्वामी जी का हृदय हिला, पूछा--"कह, बेटी, कह, क्या हुआ?" फफक-फफक कर कहा बालिका ने,--"मेरे घर एक यही बचा था घड़ा, मारेगी माँ सुनकर फूटा।" रोईफिर वह विभूति कोई! स्वामीजी ने देखीं आँखें-- गीली वे पाँखें, करुण स्वर सुना, उमड़ी स्वामीजी में करुणा। बोले--"तुम चलो घड़े की दूकान जहाँ हो, नया एक ले दें;" खिलीं बालिका की आँखें। आगे-आगे चली बड़ी राह होती बाज़ार की गली, आ कुम्हार के यहाँ खड़ी हो गई घड़े दिखा। एक देखकर पुख्ता सब में विशेखकर, स्वामीजी ने उसे दिला दिया, खुश होकर हुई वह विदा। मिले रास्ते में लड़के भूखों मरते। बोली यह देख के,--"एक महाराज आये हैं आज, पीले-पीले कपड़े पहने, होंगे उस घड़े की दूकान पर खड़े, इतना अच्छा घड़ा मुझे ले दिया! जाओ, पकड़ो उन्हें, जाओ, ले देंगे खाने को, खाओ।" दौड़े लड़के, तब तक स्वामीजी थे बातें करते, कहता दूकानदार उनसे,--"हे महाराज, ईश्वर की गाज यहाँ है गिरी, है बिपत बड़ी, पड़ा है अकाल, लोग पेट भरते हैं खा-खाकर पेड़ों की छाल। कोई नहीं देता सहारा, रहता हर एक यहाँ न्यारा, मदद नहीं करती सरकार, क्या कहूँ, ईश्वर ने ही दी है मार तो कौन खड़ा हो?" इसी समय आये वे लड़के, स्वामी जी के पैरों आ पड़े। पेट दिखा, मुँह को ले हाथ, करुणा की चितवन से, साथ बोले,--"खाने को दो, राजों के महाराज तुम हो।" चार आने पैसे स्वामी के तब तक थे बचे। चूड़ा दिलवा दिया, खुश होकर लड़कों ने खाया, पानी पिया। हँसा एक लड़का, फिर बोला-- "यहाँ एक बुढ़िया भी है, बाबा, पड़ी झोपड़ी में मरती है, तुम देख लो उसे भी, चलो।" कितना यह आकर्षण, स्वामीजी के उठे चरण। लड़के आगे हुए, स्वामी पीछे चले। खुश हो नायक ने आवाज दी,-- "बुढ़िया री, आये हैं बाबा जी।" बुढ़िया मर रही थी गन्दे में फर्श पर पड़ी। आँखों में ही कहा जैसा कुछ उस पर बीता था। स्वामीजी पैठे सेवा करने लगे, साफ की वह जगह, दवा और पथ फिर देने लगे मिलकर अफसरों से भीग माग बड़े-बड़े घरों से। लिखा मिशन को भी दृश्य और भाव दिखा जो भी। खड़ी हुई बुढ़िया सेवा से, एक रोज बोली,--"तुम मेरे बेटे थे उस जन्म के।" स्वामीजी ने कहा,-- "अबके की भी हो तुम मेरी माँ।"

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