प्रकाश
रोक रहे हो जिन्हें नहीं अनुराग-मूर्ति वे किसी कृष्ण के उर की गीता अनुपम? और लगाना गले उन्हें-- जो धूलि-धूसरित खड़े हुए हैं-- कब से प्रियतम, है भ्रम? हुई दुई में अगर कहीं पहचान तो रस भी क्या-- अपने ही हित का गया न जब अनुमान? है चेतन का आभास जिसे, देखा भी उसने कभी किसी को दास? नहीं चाहिए ज्ञान जिसे, वह समझा कभी प्रकाश?

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