गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को
गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को; भले और बुरे की, लोकनिन्दा यश-कथा की नहीं परवाह मुझे; दास तुम दोनों का सशक्तिक चरणों में प्रणाम हैं तुम्हारे देव! पीछे खड़े रहते हो, इसी लिये हास्य-मुख देखता हूँ बार बार मुड़ मुड़ कर। बार बार गाता मैं भय नहीं खाता कभी, जन्म और मृत्यु मेरे पैरों पर लोटते हैं। दया के सागर हो तुम; दस जन्म जन्म का तुम्हारा मैं हूँ प्रभो! क्या गति तुम्हारी, नहीं जानता, अपनी गति, वह भी नहीं, कौन चाहता भी है जानने को? भुक्ति-मुक्ति-भक्ति आदि जितने हैं-- जप-तप-साधन-भजन, आज्ञा से तुम्हारी मैंने दूर इन्हें कर दिया। एकमात्र आशा पहचान की ही है लगी, इससे भी करो पार! देखते हैं नेत्र ये सारा संसार, नहीं देखते हैं अपने को, देखें भी क्यों, कहो, देखते वे अपना रूप देख दूसरे का मुख। नेत्र मेरे तुम्हीं हो, तूप तुम्हारा ही घट घट में है विद्यमान। बालकेलि करता हूँ तुम्हारे साथ, क्रोध करके कभी, तुमसे किनारा कर दूर चला जाता हूँ; किन्तु निशाकाल में, देखता हूँ, शय्या-शिरोभाग में खड़े तुम चुपचाप, छलछल आँखें, हेरते हो मेरे मुख की ओर एक-टक। बदल जाता है भाव, पैरों पड़ता हूँ, किन्तु क्षमा नहीं मांगता; नहीं करते हो रोष। ऐसी प्रगल्भता और कोई कैसे कहो सहन कर सकता है? तुम मेरे प्रभु हो, प्राण-सखा मेरे तुम; कभी देखता हूँ-- "तुम मैं हो, मैं तुम बना, वाणी तुम, वीणापाणि मेरे कण्ठ में प्रभो, ऊर्मि से तुम्हारी वह जाते हैं नर-नारी।" सिन्धुनाद हुंकार, सूर्य-चन्द में वचन, मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है; सत्य है यह सब कथा, अति स्थूल--अति स्थूल वाह्य यह विकास है केश जैसे शिर पर। योजनों तक फैला हुआ हिम से अच्छादित मेरु-तट पर है महागिरि, अग्रभेदी बहु श्रृंग अभ्रहीन नभ में उठे, दृष्टि झुलसाती हुई हिम की शिलाएँ वे, दिद्युत-विकास से है शतगुण प्रखर ज्योति; उत्तर अयन में उस एकीभूत कर की सहस्र ज्योति-रेखाएं कोटि-वज्र-सम-खर-कर-धार जब ढालती हैं, एक एक श्रृंग पर मूर्च्छित हुए-से भुवन-भास्कर हैं दीखते, गलता है हिम-श्रृंग टपकता है गुहा में, घोर नाद करता हुआ टूट पड़ता है गिरि, स्वप्न-सम जल-बिम्ब जल में मिल जाता है। मन की सब वृत्तियाँ एक ही हो जातीं जब, फैलता है कोटि-सूर्य-निन्दित सत-चित-प्रकाश, गल जाते भानु, शशधर और तारादल,-- विश्व-व्योममण्डल-चंदातल-पाताल भी, ब्रह्माण्ड गोपद-समान जान पडता है। दूर जाता है जब मन वाह्यभूमि के, होता है शान्त धातु, निश्चल होता है सत्य; तन्त्रियाँ हृदय की तब ढीली पड़ जाती हैं, खुल जाते बन्धन समूह, जाते माया-मोह, गूँजता तुम्हारा अनाहत-नाद जो वहाँ, सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नतमस्तक, तत्पर सदाही वह पूर्ण करने को जो कुछ भी हो तुम्हारा कार्य। "मैं ही तब विद्यमान; प्रलय के समय में जब ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय होता है अगणन ब्रह्माण्ड ग्रास करके, यह ध्वस्त होता संसार पार कर जाता है तर्क की सीमा को, नहीं रह जाता कुछ--सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह-- महा निर्वाण वह, नहीं रहते जब कर्म, करण या कारण कुछ, घोर अन्धकार होता अन्धकार-हृदय में, मैं ही तब विद्यमान। "प्रलय के समय में जब ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय होता है अगणन-ब्रह्माण्ड-ग्रास करके, यह ध्वस्त होता संसार, पार कर जाता है तर्क की सीमा को नहीं रह जाता कुछ--सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह-- घोर अन्धकार होता अन्धकार-हृदय में, दूर होते तीनों गुण, अथवा वे मिल करके शान्त भाव धरते जब एकाकार होते शुद्ध-परमाणु-काय मैं ही तब विद्यमान। "विकसित फिर होता मैं, मेरी ही शक्ति धरती पहले विकार-रूप, आदि वाणी प्रणव-ओंकार ही बजता महाशून्य-पथ में, अन्तहीन महाकाश सुनता महनाद-ध्वनि, कारण-मण्डली की निद्रा छूट जाती है, अगणित परमाणुओं में प्राण समा जाते हैं, नर्तनावर्तोच्छ्वास बड़ी दूर-दूर से चलते केन्द्र की तरफ, चेतन पवन है उठाती ऊर्मिमालाएं महाभूत-सिन्धु पर, परमाणुओं के आवर्त घन विकास और रंग-भंग-पतन-उच्छ्वास-संग बहती बड़े वेग से हैं वे तरंगराजियाँ, जिससे अनन्त--वे अनन्त खण्ड उठे हुए घात-प्रतिघातों से शून्य पथ में दौड़ते-- बन बन ख-मण्डल हैं तारा-ग्रह घूमते, घूमती यह पृथ्वी भी, मनुष्यों की वास-भूमि। "मैं ही हूँ आदि कवि, मेरी ही शक्ति के रचना-कौशल में है जड़ और जीव सारे। मैं ही खेलता हूँ शक्ति-रूपा निज माया से। एक, होता अनेक, मैं देखने के लिये सब अपने स्वरूपों को। मेरी ही आज्ञा से बहती इस वेग से है झंझा इस पृथ्वी पर, गरज उठता है मेघ-- अशनि में नाद होता, मन्द मन्द बहती वायु मेरे निश्वास के ग्रहण और त्याग से, हिमकर सुख-हिमकर की धारा जब बहती है, तरु औ’ लताएं हैं ढकती धरा को देह शिशिर से धुले फुल्ल मुख को उठा कर वे ताकते रह जाते हैं भास्कर को सुमन-वृन्द।"

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