नारायण मिलें हँस अन्त में
याद है वह हरित दिन बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं देखता दूर-विस्तॄत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल आलोचनाओं से जटिल तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा, गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा। थक गई थी कल्पना जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी खोजती तट-भूमि सागर-गर्भ में, फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर। पवन-पीड़ित पत्र-सा कम्पन प्रथम वह अब न था। शान्ति थी, सब हट गये बादल विकल वे व्योम के। उस प्रणय के प्रात के है आज तक याद मुझको जो किरण बाल-यौवन पर पड़ी थी; नयन वे खींचते थे चित्र अपने सौख्य के। श्रान्ति और प्रतीति की चल रही थी तूलिका; विश्व पर विश्वास छाया था नया। कल्प-तरु के, नये कोंपल थे उगे। हिल चुका हूँ मैं हवा में; हानि क्या यदि झड़ूँ, बहता फिरूँ मैं अन्तहीन प्रवाह में तब तक न जब तक दूर हो निज ज्ञान-- नारायण मिलें हँस अन्त में।

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