अनुताप
जहाँ हृदय में बाल्यकाल की कला कौमुदी नाच रही थी, किरणबालिका जहाँ विजन-उपवन-कुसुमों को जाँच रही थी, जहाँ वसन्ती-कोमल-किसलय-वलय-सुशोभित कर बढ़ते थे, जहाँ मंजरी-जयकिरीट वनदेवी की स्तुति कवि पढ़ते थे, जहाँ मिलन-शिंजन-मधुगुंजन युवक-युवति-जन मन हरता था, जहाँ मृदुल पथ पथिक-जनों की हृदय खोल सेवा करता था, आज उसी जीवन-वन में घन अन्धकार छाया रहता है, दमन-दाह से आज, हाय, वह उपवन मुरझाया रहता है!

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