प्रेम के प्रति
चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब, तुम अनादि तब केवल तम; अपने ही सुख-इंगित से फिर हुए तरंगित सृष्टि विषम। तत्वों में त्वक बदल बदल कर वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल, विद्युत की माया उर में, तुम उतरे जग में मिथ्या-फल। वसन वासनाओं के रँग-रँग पहन सृष्टि ने ललचाया, बाँध बाहुओं में रूपों ने समझा-अब पाया-पाया; किन्तु हाय, वह हुई लीन जब क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया, समझे दोनों, था न कभी वह प्रेम, प्रेम की थी छाया। प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो उर-उर के हीरों के हार, गूँथे हुए प्राणियों को भी गुँथे न कभी, सदा ही सार।

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