खँडहर के प्रति
खँड़हर! खड़े हो तुम आज भी? अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज! विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें-- करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए? पवन-संचरण के साथ ही परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज- आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का भेजते सब देशों में; क्या है उद्देश तव? बन्धन-विहीन भव! ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के? अथवा, हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण, निर्निमेष नयनों से बाट जोहते हो तुम मृत्यु की अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए? किम्बा, हे यशोराशि! कहते हो आँसू बहाते हुए-- "आर्त भारत! जनक हूँ मैं जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का; मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर तेरा है बढ़ाया मान राम-कॄष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने। तुमने मुख फेर लिया, सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल, हो बसे नव छाया में, नव स्वप्न ले जगे, भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।" बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण, तव चरणों में प्रणाम है।

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