प्रगल्भ प्रेम
आज नहीं है मुझे और कुछ चाह, अर्धविकव इस हॄदय-कमल में आ तू प्रिये, छोड़ कर बन्धनमय छ्न्दों की छोटी राह! गजगामिनि, वह पथ तेरा संकीर्ण, कण्टकाकीर्ण, कैसे होगी उससे पार? काँटों में अंचल के तेरे तार निकल जायेंगे और उलझ जायेगा तेरा हार मैंने अभी अभी पहनाया किन्तु नज़र भर देख न पाया-कैसा सुन्दर आया। मेरे जीवन की तू प्रिये, साधना, प्रस्तरमय जग में निर्झर बन उतरी रसाराधना! मेरे कुंज-कुटीर-द्वार पर आ तू धीरे धीरे कोमल चरण बढ़ा कर, ज्योत्स्नाकुल सुमनों की सुरा पिला तू प्याला शुभ्र करों का रख अधरो पर! बहे हृदय में मेरे, प्रिय, नूतन आनन्द प्रवाह, सकल चेतना मेरी होये लुप्त और जग जाये पहली चाह! लखूँ तुझे ही चकित चतुर्दिक, अपनापन मैं भूलूँ, पड़ा पालने पर मैं सुख से लता-अंक के झूलूँ; केवल अन्तस्तल में मेरे, सुख की स्मृति की अनुपम धारा एक बहेगी, मुझे देखती तू कितनी अस्फुट बातें मन-ही-मन सोचेगी, न कहेगी! एक लहर आ मेरे उर में मधुर कराघातों से देगी खोल हृदय का तेरा चिरपरिचित वह द्वार, कोमल चरण बढ़ा अपने सिंहासन पर बैठेगी, फिर अपनी उर की वीणा के उतरे ढीले तार कोमल-कली उँगुलियों से कर सज्जित, प्रिये, बजायेगी, होंगी सुरललनाएँ भी लज्जित! इमन-रागिनी की वह मधुर तरंग मीठी थपकी मार करेगी मेरी निद्रा भंग; जागूँगा जब, सम में समा जायगी तेरी तान, व्याकुल होंगे प्राण, सुप्त स्वरों के छाये सन्नाटे में गूँजेगा यह भाव, मौन छोड़ता हुआ हृदय पर विरह-व्यथित प्रभाव-- "क्या जाने वह कैसी थी आनन्द-सुरा अधरों तक आकर बिना मिटाये प्यास गई जो सूख जलाकर अन्तर!"

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