यहीं
मधुर मलय में यहीं गूँजी थी एक वह जो तान लेती हिलोरें थी समुद्र की तरंग सी,-- उत्फुल्ल हर्ष से प्लावित कर जाती तट। वीणा की झंकृति में स्मृति की पुरातन कथा जग जाती हृदय में,--बादलों के अंग में मिली हुई रश्मि ज्यों नृत्य करती आँखों की अपराजिता-सी श्याम कोमल पुतलियों में, नूपुरों की झनकार करती शिराओं में संचरित और गति ताल-मूर्च्छनाओं सधी। अधरों के प्रान्तरों प्र खेलती रेखाएँ सरस तरंग-भंग लेती हुई हास्य की। बंकिम-वल्लरियों को बढ़ाकर मिलनकय चुम्बन की कितनी वे प्रार्थनाएँ बढ़ती थीं सुन्दर के समाराध्य मुख की ओर तृप्तिहीन तृष्णा से। कितने उन नयनों ने प्रेम पुलकित होकर दिये थे दान यहाँ मुक्त हो मान से! कॄष्णाधन अलकों में कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था! आभा में पूर्ण, वे बड़ी बड़ी आँखें, पल्लवों की छाया में बैठी रहती थीं मूर्ति निर्भरता की बनी। कितनी वे रातें स्नेह की बातें रक्खे निज हृदय में आज भी हैं मौन यहाँ-- लीन निज ध्यान में। यमुना की कल ध्वनि आज भी सुनाती है विगत सुहाग-गाथा; तट को बहा कर वह प्रेम की प्लावित करने की शक्ति कहती है।

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