मित्र के प्रति
कहते हो, ‘‘नीरस यह बन्द करो गान- कहाँ छन्द, कहाँ भाव, कहाँ यहाँ प्राण ? था सर प्राचीन सरस, सारस-हँसों से हँस; वारिज-वारिज में बस रहा विवश प्यार; जल-तरंग ध्वनि; कलकल बजा तट-मृदंग सदल; पैंगें भर पवन कुशल गाती मल्लार।’’ सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ नहीं अर्र-बर्र; नहीं वहाँ भेक, वहाँ नहीं टर्र-टर्र। एक यहीं आठ पहर बही पवन हहर-हहर, तपा तपन, ठहर-ठहर सजल कण उड़े; गये सूख भरे ताल, हुए रूख हरे शाल, हाय रे, मयूर-व्याल पूँछ से जुड़े! देखे कुछ इसी समय दृश्य और-और इसी ज्वाल से लहरे हरे ठौर-ठौर ? नूतन पल्लव-दल, कलि, मँडलाते व्याकुल अलि तनु-तन पर जाते बलि बार-बार हार; बही जो सुवास मन्द मधुर भार-भरण-छन्द मिली नहीं तुम्हें, बन्द रहे, बन्धु, द्वार? इसी समय झुकी आम्र- शाखा फल-भार मिली नहीं क्या जब यह देखा संसार? उसके भीतर जो स्तव, सुना नहीं कोई रव? हाय दैव, दव-ही-दव बन्धु को मिला! कुहरित भी पञ्चम स्वर, रहे बन्द कर्ण-कुहर, मन पर प्राचीन मुहर, हृदय पर शिला! सोचो तो, क्या थी वह भावना पवित्र, बँधा जहाँ भेद भूल मित्र से अमित्र। तुम्हीं एक रहे मोड़ मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़; कहो, कहो, कहाँ होड़ जहाँ जोड़, प्यार? इसी रूप में रह स्थिर, इसी भाव में घिर-घिर, करोगे अपार तिमिर- सागर को पार? बही बन्धु, वायु प्रबल जो, न बँध सकी; देखते थके तुम, बहती न वह न थकी। समझो वह प्रथम वर्ष, रुका नहीं मुक्त हर्ष, यौवन दुर्धर्ष कर्ष- मर्ष से लड़ा; ऊपर मध्याह्न तपन तपा किया, सन्-सन्-सन् हिला-झुका तरु अगणन बही वह हवा। उड़ा दी गयी जो, वह भी गयी उड़ा, जली हुई आग कहो, कब गयी जुड़ा? जो थे प्राचीन पत्र जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र, झड़े हुए यत्र-तत्र पड़े हुए थे, उन्हीं से अपार प्यार बँधा हुआ था असार, मिला दुःख निराधार तुम्हें इसलिए। बही तोड़ बन्धन छन्दों का निरुपाय, वही किया की फिर-फिर हवा ‘हाय-हाय’। कमरे में, मध्य याम, करते तब तुम विराम, रचते अथवा ललाम गतालोक लोक, वह भ्रम मरुपथ पर की यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी, जला शोक-चिह्न, दिया रँग विटप अशोक। करती विश्राम, कहीं नहीं मिला स्थान, अन्ध-प्रगति बन्ध किया सिन्धु को प्रयाण; उठा उच्च ऊर्मि-भंग- सहसा शत-शत तरंग, क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग- अवगाहन-स्नान, किया वहाँ भी दुर्दम देख तरी विघ्न विषम, उलट दिया अर्थागम बनकर तूफान। हुई आज शान्त, प्राप्त कर प्रशान्त-वक्ष; नहीं त्रास, अतः मित्र, नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’। उड़े हुए थे जो कण, उतरे पा शुभ वर्षण, शुक्ति के हृदय से बन मुक्ता झलके; लखो, दिया है पहना किसने यह हार बना भारति-उर में अपना, देख दृग थके!

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