प्रलाप
वीणानिन्दित वाणी बोल! संशय-अन्धकामय पथ पर भूला प्रियतम तेरा-- सुधाकर-विमल धवल मुख खोल! प्रिये, आकाश प्रकाशित करके, शुष्ककण्ठ कण्टकमय पथ पर छिड़क ज्योत्स्ना घट अपना भर भरके! शुष्क हूँ--नीरस हूँ--उच्छ्श्रृखल-- और क्या क्या हूँ, क्या मैं दूँ अब इसका पता, बता तो सही किन्तु वह कौन घेरनेवाली बाहु-बल्लियों से मुझको है एक कल्पना-लता! अगर वह तू है तो आ चली विहगगण के इस कल कूजन में-- लता-कुंज में मधुप-पुंज के ’गुनगुनगुन’ गुंजन में; क्या सुख है यह कौन कहे सखि, निर्जन में इस नीरव मुख-चुम्बन में! अगर बतायेगी तू पागल मुझको तो उन्मादिनी कहूँगा मैं भी तुझको अगर कहेगी तू मुझको ’यह है मतवाला निरा’ तो तुझे बताऊँगा मैं भी लावण्य-माधुरी-मदिरा। अगर कभी देगी तू मुझको कविता का उपहार तो मैं भी तुझे सुनाऊँगा भैरव दे पद दो चार! शान्ति-सरल मन की तू कोमल कान्ति-- यहाँ अब आ जा, प्याला-रस कोई हो भर कर अपने ही हाथों से तू मुझे पिला जा, नस-नस में आनन्द-सिन्धु के धारा प्रिये, बहा जा; ढीले हो जायें ये सारे बन्धन, होये सहज चेतना लुप्त,-- भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे अचेतन। भूलूँ मैं कविता के छन्द, अगर कहीं से आये सुर-संगीत-- अगर बजाये तू ही बैठ बगल में कोई तार तो कानों तक आते ही रुक जाये उनकी झंकार; भूलूँ मैं अपने मन को भी तुझको-अपने प्रियजन को भी! हँसती हुई, दशा पर मेरी प्रिय अपना मुख मोड़, जायेगी ज्यों-का-त्यों मुझको यहाँ अकेला छोड़! इतना तो कह दे--सुख या दुख भर लेगी जब इस नद से कभी नई नय्या अपनी खेयेगी?

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