सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति
वीक्षण अगल:- बज रहे जहाँ जीवन का स्वर भर छन्द, ताल मौन में मन्द्र, ये दीपक जिसके सूर्य-चन्द्र, बँध रहा जहाँ दिग्देशकाल, सम्राट! उसी स्पर्श से खिली प्रणय के प्रियंगु की डाल-डाल! विंशति शताब्दि, धन के, मान के बाँध को जर्जर कर महाब्धि ज्ञान का, बहा जो भर गर्जन-- साहित्यिक स्वर-- "जो करे गन्ध-मधु का वर्जन वह नहीं भ्रमर; मानव मानव से नहीं भिन्न, निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा, वह नहीं क्लिन्न; भेद कर पंक निकलता कमल जो मानव का वह निष्कलंक, हो कोई सर" था सुना, रहे सम्राट! अमर-- मानव के घर! वैभव विशाल, साम्राज्य सप्त-सागर-तरंग-दल-दत्त-माल, है सूर्य क्षत्र मस्तक पर सदा विराजित ले कर-आतपत्र, विच्छुरित छटा-- जल, स्थल, नभ में विजयिनी वाहिनी-विपुल घटा, क्षण क्षण भर पर बदलती इन्द्रधनु इस दिशि से उस दिशि सत्वर, वह महासद्म लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटिल ज्यों रक्त पद्म, बैठे उस पर, नरेन्द्र-वन्दित, ज्यों देवेश्वर। पर रह न सके, हे मुक्त, बन्ध का सुखद भार भी सह न सके। उर की पुकार जो नव संस्कृति की सुनी विशद, मार्जित, उदार, था मिला दिया उससे पहले ही अपना उर, इसलिये खिंचे फिर नहीं कभी, पाया निज पुर जन-जन के जीवन में सहास, है नहीं जहाँ वैशिष्टय-धर्म का भ्रू-विलास-- भेदों का क्रम, मानव हो जहाँ पड़ा-- चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम। सिंहासन तज उतरे भूपर, सम्राट! दिखाया सत्य कौन सा वह सुन्दर। जो प्रिया, प्रिया वह रही सदा ही अनामिका, तुम नहीं मिले,-- तुमसे हैं मिले हुए नव योरप-अमेरिका। सौरभ प्रमुक्त! प्रेयसी के हृदय से हो तुम प्रतिदेशयुक्त, प्रतिजन, प्रतिमन, आलिंगित तुमसे हुई सभ्यता यह नूतन!

Read Next