कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 1
कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं – 'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम! तरक़्क़ी के गोल-गोल घुमावदार चक्करदार ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की चढ़ते ही जाने की उन्नति के बारे में तुम्हारी ही ज़हरीली उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!' कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी, आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर। अजीब-सी होती है, चारों ओर वीरान-वीरान महक सुनसानों की पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में। वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है 'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों में मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी की सोंधी गंध कहीं नहीं, कहीं नहीं पूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं; केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों में निर्जन प्रसारों पर सिर्फ़ एक आँख से 'सफलता' की आँख से दुनिया को निहारती फैली है पूनों की चांदनी। सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों में बैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हित जंगल के सियारों और घनी-घनी छायाओं में छिपे हुए भूतों और प्रेतों तथा पिचाशों और बेतालों के लिए – मनुष्य के लिए नहीं – फैली यह सफलता की, भद्रता की, कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।

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