कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 2
मुझको डर लगता है, मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे घुग्घू या सियार या भूत नहीं कहीं बन जाऊँ। उनको डर लगता है आशंका होती है कि हम भी जब हुए भूत घुग्घू या सियार बने तो अभी तक यही व्यक्ति ज़िंदा क्यों? उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर जीवित क्यों रहती है? मरकर जब भूत बने उसकी वह आत्मा पिशाच जब बन जाए तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर सफलता के चंद्र की छाया में अधीर हो। इसीलिए, इसीलिए, उनका और मेरा यह विरोध चिरंतन है, नित्य है, सनातन है। उनकी उस तथाकथित जीवन-सफलता के खपरैलों-छेदों से खिड़की की दरारों से आती जब किरणें हैं तो सज्जन वे, वे लोग अचंभित होकर, उन दरारों को, छेदों को बंद कर देते हैं; इसीलिए कि वे किरणें उनके लेखे ही आज कम्यूनिज़्म है...गुंडागर्दी है...विरोध है, जिसमें छिपी है कहीं मेरी बदमाशी भी। मैं पुकारकर कहता हूँ – 'सुनो, सुननेवालों। पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय बरगद एक विकराल। उसके विद्रूप शत शाखा-व्यूहों निहित पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं। तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर... वृक्ष के तने से चिपट बैठा है, खड़ा है कोई पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का, वह तो रखवाला है घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का। और उस जंगल में, बरगद के महाभीम भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चांदनी सफलता की, भद्रता की, श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की खिलखिलाती चांदनी। अगर कहीं सचमुच तुम पहुँच ही वहाँ गए तो घुग्घू बन जाओगे। आदमी कभी भी फिर कहीं भी न मिलेगा तुम्हें। पशुओं के राज्य में जो पूनों की चांदनी है नहीं वह तुम्हारे लिए नहीं वह हमारे लिए।

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