कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 3
तुम्हारे पास, हमारे पास, सिर्फ़ एक चीज़ है – ईमान का डंडा है, बुद्धि का बल्लम है, अभय की गेती है हृदय की तगारी है – तसला है नए-नए बनाने के लिए भवन आत्मा के, मनुष्य के, हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग जीवन की गीली और महकती हुई मिट्टी को। जीवन-मैदानों में लक्ष्य के शिखरों पर नए किले बनाने में व्यस्त हैं हमीं लोग हमारा समाज यह जुटा ही रहता है। पहाड़ी चट्टानों को चढ़ान पर चढ़ाते हुए हज़ारों भुजाओं से ढकेलते हुए कि जब पूरा शारीरिक ज़ोर फुफ्फुस की पूरी साँस छाती का पूरा दम लगाने के लक्षण-रूप चेहरे हमारे जब बिगड़ से जाते हैं – सूरज देख लेता है दिशाओं के कानों में कहता है – दुर्गों के शिखर से हमारे कंधे पर चढ़ खड़े होने वाले ये दूरबीन लगा कर नहीं देखेंगे – कि मंगल में क्या-क्या है!! चंद्रलोक-छाया को मापकर वहाँ के पहाड़ों की उँचाई नहीं नापेंगे, वरन् स्वयं ही वे विचरण करेंगे इन नए-नए लोकों में, देश-काल-प्रकृति-सृष्टि-जेता ये। इसलिए अगर ये लोग सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप मामूली रूप-रंग लिए हुए होने से तथाकथित 'सफलता' के खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि निरर्थक व महत्वहीन क़रार दिए जाते हों तो कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं।

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