क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
अगणित अभी यहाँ हैं,
बढे़ शान्ति की लता हाय,
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
यह न बाह्य उपकरण, भार बन
जो आवे ऊपर से।
आभा की यह ज्योति, फूटती
सदा विमल अंतर से।
शिवा-शान्ति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में;
सदा जन्म लेती वह नर के
मन:प्रान्त निस्पृह में।
जब होती अवतीर्ण शान्ति यह,
भय न शेष रह जाता,
शंका-तिमिर-ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता।
आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है,
बचो युधिष्ठिर ! इस नागिन का
विष से भरा दशन है।
कुरुक्षेत्र में जली चिता जिसकी,
वह शान्ति नहीं थी;
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली,
वह दुष्क्रान्ति नहीं थी।
नहीं हुआ स्वीकार शान्ति को
जीना जब कुछ देकर,
टूटा पुरुष काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर।