समर निंद्य है / भाग ६
क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन अगणित अभी यहाँ हैं, बढे़ शान्ति की लता हाय, वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं? यह न बाह्य उपकरण, भार बन जो आवे ऊपर से। आभा की यह ज्योति, फूटती सदा विमल अंतर से। शिवा-शान्ति की मूर्ति नहीं बनती कुलाल के गृह में; सदा जन्म लेती वह नर के मन:प्रान्त निस्पृह में। जब होती अवतीर्ण शान्ति यह, भय न शेष रह जाता, शंका-तिमिर-ग्रस्त फिर कोई नहीं देश रह जाता। आनन सरल, वचन मधुमय है, तन पर शुभ्र वसन है, बचो युधिष्ठिर ! इस नागिन का विष से भरा दशन है। कुरुक्षेत्र में जली चिता जिसकी, वह शान्ति नहीं थी; अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली, वह दुष्क्रान्ति नहीं थी। नहीं हुआ स्वीकार शान्ति को जीना जब कुछ देकर, टूटा पुरुष काल-सा उस पर प्राण हाथ में लेकर।

Read Next