वैशाली
ओ भारत की भूमि वन्दिनी! ओ जंजीरोंवाली! तेरी ही क्या कुक्षि फाड़ कर जन्मी थी वैशाली? वैशाली! इतिहास-पृष्ठ पर अंकन अंगारों का, वैशाली! अतीत गह्वर में गुंजन तलवारों का। वैशाली! जन का प्रतिपालक, गण का आदि विधाता, जिसे ढूँढता देश आज उस प्रजातंत्र की माता। रुको, एक क्षण पथिक! यहाँ मिट्टी को शीश नवाओ, राजसिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ। डूबा है दिनमान, इसी खॅंडहर में डूबी राका, छिपी हुई है यहीं कहीं धूलों में राजपताका। ढूँढो उसे, जगाओ उनको जिनकी ध्वजा गिरी है; जिनके सो जाने से सिर पर काली घटा घिरी है। कहो, जगाती है उनको वन्दिनी बेड़ियोंवाली, नहीं उठे वे तो न बसेगी किसी तरह वैशाली। + + + फिर आते जागरण-गीत टकरा अतीत-गह्वर से, उठती है आवाज एक वैशाली के खॅंडहर से। करना हो साकार स्वप्न को तो बलिदान चढ़ाओ, ज्योति चाहते हो तो पहले अपनी शिखा जलाओ। जिस दिन एक ज्वलन्त वीर तुम में से बढ़ आयेगा, एक-एक कण इस खॅंडहर का जीवित हो जायेगा। किसी जागरण की प्रत्याशा में हम पड़े हुए हैं, लिच्छवि नहीं मरे, जीवित मानव ही मरे हुए हैं।

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