संन्यासी और गृहस्थ
तेरा वास गगन-मंडल पर, मेरा वास भुवन में, तू विरक्त, मैं निरत विश्व में, तू तटस्थ, मैं रण में। तेरी-मेरी निभे कहाँ तक, ओ आकाश प्रवासी? मैं गृहस्थ सबका दुख-भोगी, तू अलिप्त संन्यासी।

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