याचना
शतदल, मृदुल जीवन-कुसुम में प्रिय! सुरभि बनकर बसो। घन-तुल्य हृदयाकाश पर मृदु मन्द गति विचरो सदा। प्रियतम! कहूँ मैं और क्या? दृग बन्द हों तब तुम सुनहले स्वप्न बन आया करो, अमितांशु! निद्रित प्राण में प्रसरित करो अपनी प्रभा। प्रियतम! कहूँ मैं और क्या? उडु-खचित नीलाकाश में ज्यों हँस रहा राकेश है, दुखपूर्ण जीवन-बीच त्यों जाग्रत करो अव्यय विभा। प्रियतम! कहूँ मैं और क्या? निर्वाण-निधि दुर्गम बड़ा, नौका लिए रहना खड़ा, कर पार सीमा विश्व की जिस दिन कहूँ ‘वन्दे, विदा।’ प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?

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