समर निंद्य है / भाग ४
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुए विनत जितना ही, दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही। क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो? उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से। सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की। जहाँ नहीं सामर्थ्य शोढ की, क्षमा वहाँ निष्फल है। गरल-घूँट पी जाने का मिस है, वाणी का छल है। वे क्या जाने नर में वह क्या असहनशील अनल है, जो लगते ही स्पर्श हृदय से सिर तक उठता बल है?

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